(पंकज शर्मा)
दंगों का एक समाजशास्त्र होता है, एक अर्थशास्त्र होता है और एक राजनीतिशास्त्र भी होता है। दंगे सामाजिक नफ़रत का शस्त्र हैं, आर्थिक गै़र-बराबरी का शस्त्र हैं और राजनीतिक जनाधार का भी शस्त्र हैं। दंगे मैदानों में कूदने से पहले दिमाग़ों में पसरते हैं। सो, दंगों को दिमाग़ों में घुसाने का काम करने वाले उनसे कम ज़िम्मेदार क्यों माने जाएं, जो सड़कों पर, मुहल्लों और गलियों में दंगों को अंज़ाम देते हैं?
दिल्ली के गामरी गांव में 85 बरस की अकबरी को भीतर बंद कर घर को आग लगा देने वाले क्या देवदूत थे? कपड़े सिल कर अपना परिवार पाल रहे अकबरी के बेटे मुहम्मद सईद सलमानी की रोती आंखों के सवालों का जवाब है किसी के पास? करावल नगर में 24 साल के आलोक तिवारी को मार देने वाले क्या फ़रिश्ते थे? हरदोई से आ कर राजधानी में अपनी रोज़ी कमा रहे आलोक के दो नन्हे बच्चों की भीगी आंखों से बह रहे प्रश्नों का जवाब है किसी के पास?
दिल्ली के दंगों में 21 साल के निर्माण-मज़दूर मेहताब की जान भी गई और प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहे 23 साल के राहुल ठाकुर की भी। 22 बरस के लुहार सुलेमान को भी दंगे ने लीला और 25 बरस के आईबी कर्मचारी अंकित शर्मा को भी। 17 साल का अमान, 17 साल का हाशिम, 22 साल का अशफ़ाक, 22 साल का मुहम्मद शाहबान, 24 साल का इश्तियाक खान, 24 साल का माहरूफ़ अली, 26 साल का ज़ाकिर, 35 साल का मुशर्रफ़ और 35 साल का मुदासिर खान-कोई नहीं बचा। 26 बरस का राहुल सोलंकी, 32 बरस का संजीत ठाकुर, 34 बरस का दीपक कुमार, 35 बरस का दिनेश कुमार, 42 बरस का रतनलाल, 48 बरस का वीरभान और 50 बरस का विनोद कुमार भी दिल्ली के दंगों में जाते रहे।
सूची अभी अधूरी है। लेकिन यह सूची बताती है कि दंगे किस तरह दुधारी तलवार होते हैं। तलवारों के बूते सामाजिक मौसम बदलने घरों से निकले लोगों को बाद में मालूम होता है कि उनकी तलवार दुधारी थी। गोलियों पर किसी का नाम नहीं लिखा होता है। वे जब चलती हैं तो फूंक-फूंक कर अपने क़दम थोड़े ही रखती हैं। आग जब लगती है तो वह क्या जाने कि किस घर को जलाना है, किस घर को बचाना है? लेकिन फिर भी तलवार थामने वाले हाथ मौजूद हैं। फिर भी आग लगाने वाले हाथ मौजूद हैं। मौजूद अगर नहीं है तो वे रहनुमा, जो ऐसे मौक़ों पर नंगे पांव दौड़े चले आते थे। हमारा दुर्भाग्य है कि हमने देखा कि दिल्ली जब जल रही है, वे बांसुरी बजा रहे हैं।
हर त्रासद मौक़े पर राहत की फुहारें ढूंढने को बेताब हमारा मन चूंकि मानता नहीं है, इसलिए दिल्ली के दावानल में कौंध रहे उन किस्सों की, आइए, बलैयां लें, जिनमें मज़हब और समुदायों की दीवारें लांघ कर एक-दूसरे को अपनी जान पर खेल कर भी बचाने के ज़िक्र हैं। लेकिन मिले-जुले समाज की यह भीतरी ताक़त किसी रहनुमा के आचरण से मिली प्रेरणा की वज़ह से नहीं, भारत की उत्पत्ति के आनुवंशिक बीज के कारण है। तमाम झंझावातों के बावजूद पांच हज़ार साल की सभ्यता के क्रमिक विकास की मिट्टी में यह बीज छिपा है। इसलिए हम अपने सिर पर मंडरा रहे नीरो-चेहरों के बावजूद कर्तव्यनिष्ठ हैं। इसलिए राजनीतिक कु-विचारधाराओं से निरपेक्ष लोग अब भी हमारे बीच हैं। इसलिए अ-सामाजिक ख़ुराफ़ातों से अविचलित लोग अब भी हमारे बीच हैं। भारतीय समाज उनकी वज़ह से ज़िंदा है, किसी भी सियासी रहनुमा की वज़ह से नहीं।
अगर राजनीतिक संसार के नियंताओं पर प्रजा की आस्था पहले जैसी होती तो दंगा-ग्रस्त इलाक़ों का दौरा करते हम किसी सूट-बूट-टाई धारी को क्यों देखते? किसी लोकनायक को देखते। मगर चूंकि लोकनायक अब हैं नहीं, इसलिए हम कारकून देखने को अभिशप्त हैं। सियासत के अ-नायक भूल रहे हैं कि कारकूनों के बूते वे लोकनायक नहीं बने रह सकते। कारकून भी भूल रहे हैं कि उनकी लोकनायकी मुद्रा को देख कर लोगों के भीतर किस क़दर वितृष्णा रिस रही है। अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर अगर जनतंत्र चला सकते तो भारत की जन्म-कुंडली में पंद्रह अगस्त का दिन आता ही क्यों? जिन्हें इत्ती-सी बात समझ नहीं आ रही, भगवान उनका भला करें!
ज़िद्दी शासकों की कथाओं से इतिहास भरा पड़ा है। ज़हीन शासकों की कहानियां भी हमारे अतीत का हिस्सा हैं। बचपन में हर कहानी के अंत में हम से पूछा जाता था कि इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है? उन कहानियों ने हमें उनके दुखांत और सुखांत होने का फ़र्क़ सिखाया। उन कहानियों ने हमारे भीतर चुपचाप एक आचरण संहिता घोली। उन कहानियों ने हमें मनुष्य बने रहने की हिम्मत दी। उन कहानियों के सबक जो भूल गए, उन्हें इतिहास ने भी भुला दिया। युगों-युगों तक फैले फ़लक में दस-बीस साल के राजपाट को अपना सर्वस्व मान लेने वाले और उसे बनाए रखने के लिए कुछ भी करने पर आमादा लोगों को कौन समझाए कि राम का मंदिर बनाना अलग बात है और राम-राज्य की स्थापना करना एकदम अलग बात।
प्रजातंत्र में जनमत मिल्क़ियत नहीं, अमानत होता है। प्रजा की अमानत को जो राजा अपना एकछत्र अधिकार मान ले, उसे आप क्या कहेंगे? दूसरों की अमानत गले में लटका कर कोई भले ही अर्राता डोले, देखने वाले उस पर तरस ही खाते हैं। दुमछल्लों ने बड़े-बड़े राज चौपट कर डाले। उनकी वज़ह से बड़े-बड़ों के ताज धूल खाने लगे। दिल्ली के दंगों के समय सत्ता-व्यवस्था का रवैया आशंका पैदा करता है कि इतिहास अपने को कहीं दोहराने की तैयारी में तो नहीं है? आखि़र वे कौन लोग हैं, जो हमारे हृदय-सम्राट प्रधानमंत्री को जलती दिल्ली के दौरान 69 घंटे तक चुप्पी साधे रखने का धैर्य प्रदान करते हैं? आखि़र वे कौन हैं, जिनके चलते गृह मंत्री अपनी फ़र्ज़-अदायगी से विमुख हो कर लाट-साहब को आगे कर देना पसंद करते हैं?
दिल्ली के दंगे जानबूझ कर बोई गई नफ़रत का नतीजा हैं। वे पद-लुंठित सियासी तबके की असीमित हवस का नतीजा हैं। वे सत्ता-शीर्ष के मन-मस्तिष्क में भीतर तक पैठे अवमानना-भाव का नतीजा हैं। वे कुल मिला कर एक बेहद गै़र-ज़िम्मेदार, अलपरवाह, भाग्यवादी और दिशाहीन विपक्ष के नाकारापन का नतीजा हैं। बावजूद इसके अगर दंगों का उबाल थम गया तो इसलिए कि व्यक्तिगत और सामूहिक संवेदनाओं के झरने अभी पूरी तरह सूखे नहीं हैं। उन्हें सुखाने की कम कोशिशें नहीं हुई हैं, लेकिन माटी में नमी अब भी इसलिए बाकी है कि भारतीय समाज की नींव के पत्थरों का स्वभाव मूलतः तरल है। जो लोहे के दस्ताने पहन कर हमारी सामाजिक व्यवस्था को मनमाना स्वरूप देने के लिए दंड पेल रहे हैं, वे जो भी हों, उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी उद्दंडता इस मुल्क़ की तासीर से मेल नहीं खाती है। दिल्ली की विस्फरित आंखों और सहमी हुई दहलीज़ों में जिन्हें आगत के खतरे दिखाई नहीं दे रहे हैं, मैं उनसे निवेदन करता हूं कि वे सिंहासन-शास्त्र की बत्तीस पुतलियों की कथाओं का अकेले में पाठ करें। ये पुतलियां उन्हें बताएंगी कि अगर हुक़्मरानों का बस चलता तो हरे-भरे पेड़ भी बारिशों में कभी के जल गए होते। मगर मज़ा तो यही है कि सब दिन होत न एक समाना और जो यह भूल जाते हैं, वे एक दिन भुला दिए जाते हैं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
(साई फीचर्स)