150वीं गांधी जयंती की सबसे बड़ी विडंबना

 

 

(विजय कुमार)

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर गामदेवी स्थित मणि भवन की ओर जाते हुए मन के भीतर एक अजीब सी विकलता से बच पाना संभव नहीं था। मणि भवन, जो गांधी की बहुत सारी गतिविधियों का केंद्र स्थल था, मैं उसमें प्रवेश से पहले उस पतली और शांत-सी सड़क लेबरनम रोड खड़ा उस सादा दुमंजिला ऐतिहासिक इमारत को देर तक देखता हूं। यह छोटी सी इमारत, जो एक युग की तमाम कथाओं, घटनाओं और स्मृतियों को समेटे खड़ी है।

पहले भी कई बार यहां आना हुआ है और हर बार वही अनुभव कि वह युगपुरुष जो हमारे लिए आज लगभग इतिहास के एक मिथक की तरह है, हमसे कुछ सवाल कर रहा है। युग पुरुषों के ऐसे स्मारक अपने भौतिक जीवन की स्थूल घटनाओं, झांकियों और छूटे हुए चिह्नों के बाहर आकर समय का एक अरूप एहसास बन जाते हैं। वे एक युग की स्मृतियों के रूप में हमारे वर्तमान पर मंडराते रहते हैं और हमारे पास जब उनकी उपस्थिति का कोई गहरा अर्थ नहीं होता, तो हम उनके व्यक्तित्व को महामानव, संत या महात्मा का दर्जा देकर उनके प्रति सम्मान भाव को एक कर्मकांड में बदल देते हैं। उनके संदेशों की वह आंतरिक अर्थवत्ता एक समग्र उदासीनता से ढक जाती है। महात्मा गांधी के साथ भी हमने कुछ ऐसा ही सुलूक किया है।

युगपुरुष गांधी के अफ्रीका से भारत लौटने के बाद 1917 से 1934 तक के उनके 17 वर्षों की उस अवधि में यह जगह उनकी गतिविधियों का केंद्र थी। उनके सार्वजनिक और निजी जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं यहां घटीं और उनका व्यक्तित्व क्रमशः एक विराट आकार लेता गया। यह जगह जहां रॉलेट कानून के विरुद्ध 1919 में उन्होंने सत्याग्रह शुरू किया, जहां अप्रैल 1919 में उन्होंने इंडियन प्रेस ऐक्ट का विरोध करने वाले सत्याग्रही नामक गैर कानूनी पत्रिका को निकालना शुरू किया, वह समय जब गांधी ने अंग्रेजी में यंग इंडिया और गुजराती में नवजीवन साप्ताहिक पत्रों के संचालन की जिम्मेदारी ली।

यह स्थल जहां 1920 में असहयोग आंदोलन का सूत्रपात हुआ और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान के समय यहां जन सैलाब उमड़ पड़ा था। जहां 17 नवंबर 1921 को दंगे-फसाद के विरुद्ध शांति की स्थापना के लिए गांधी ने ऐतिहासिक उपवासों का क्रम शुरू किया था। वह स्थल जहां 1931 में कांग्रेस कार्यकारिणी की सभा हुई थी और उसने गांधी को लंदन में गोलमेज परिषद् में कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में भेजने का निर्णय लिया था, जहां गांधी ने 31 दिसंबर 1931 को आधी रात को स्वराज के लिए असहयोग आंदोलन को शुरू करने का निर्णय लिया था और जहां 4 जनवरी 1932 को तड़के उन्हें गिरफ्तार किया गया था।

17 वर्षों का वह समय और हमारी कल्पना में उमड़ते हुए वे तमाम बिंब। 1917 में इस इमारत के पड़ोस में प्रतिदिन आने वाले एक पिंजारे से गांधीजी ने कपास की धुनाई का वह पहला पाठ सीखा था और उनका वह कताई करना सीखना और चर्खे का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक केंद्रीय प्रतीक बन जाना – वह सब जैसे कि आज एक नई व्याख्या चाहता है। मणि भवन में गांधी के जीवन की झांकियां दिखाती उन करीब 50 दुर्लभ तस्वीरों, उनके पत्रों, व्याख्यानों, उनकी निजी पुस्तकों और अन्य दस्तावेजों से झांकता हुआ वह समय, जो सहसा आपके वर्तमान को भी आपके सामने उजागर कर देता है।

उसका बहुआयामी व्यक्तित्व, जिसमें राजनीतिक आंदोलन, दीन-हीन से जुड़ाव, धर्म की बुनियादी अवधारणा, समाज सुधार, संस्कृति चिंतन और आत्मबल अद्भुत रूप से आपस में एक दूसरे से जु्ड़े हुए थे। वह व्यक्तित्व, जो हमेशा ताकत के सत्ता तंत्र से दूर रहा, जिसमें जीवन विश्वासों, बाह्य आचरणों, सादगी और आंतरिक शुचिता के बीच एक समरसता थी, जिसके यहां परंपरा और आधुनिकता के संबंधों के कुछ सबसे बुनियादी विमर्श थे। और वह साधारण-सी काया, जो किसी एकीकृत विराट सत्य के लिए निर्भय और अडिग खड़ी थी। समय के साथ इस सबके अर्थ व्यापक होते जाने चाहिए थे, लेकिन धीरे-धीरे हमने कैसे उन सारे जीवन मूल्यों और अवधारणाओं को कुछ सतही कर्मकांड में बदल डाला।

उपभोगमूलक संस्कृति का अतिरेकों से भरा यह खोखला समय, जिसमें चमक है, आत्म प्रदर्शन है, भयावह पाखंड है और शब्दों के अर्थ निरंतर खोते चले जा रहे हैं, जिसमें शोर और हिंसा से भरी हुई लीलाओं से दैनंदिन हमारा सामना हो रहा है- सवाल यह है कि इस सबके बीच से हम गांधी तक हम कैसे जाएं? अब तो राष्ट्रपिता जैसे शब्द तक का अवमूल्यन होने लगा है। एक वाचाल राजनेता दूसरे वाचाल राजनेता को सहसा राष्ट्र पिता की उपाधि दे डालता है। इतिहास की पैरोडियां इसी तरह से बनती हैं और एक समय के सबसे मौलिक शब्द अपने मूल अर्थों से दूर छिटकते जाते हैं।

हमारे इस वर्तमान में धर्म की संकीर्ण अवधारणाओं का यह हिंसक समय और इसमें घिरे हुए हम गांधी की धर्म की उस गतिशील अवधारणा को याद करना चाहते हैं, जिसमें धर्म किन्हीं सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों से जुड़ता था। गांधी अपने को सनातनी हिंदू कहते थे, लेकिन हिंदुत्व उनकी वह अवधारणा किसी दकियानूसी ब्राह्मणवाद की जकड़न और पोंगापंथ में लिपटी हुई आक्रामकता का अवरुद्ध बोध नहीं, बल्कि सत्य के आग्रह और करुणा की किसी बुनियादी भूमिका से जुड़ा हुआ रास्ता था। गीता पढ़ते हुए गांधी उसके भक्ति तत्व को छोड़कर उसके कर्म के संदेश को अपनाते हैं। वह रास्ता जो घृणा, कट्टरता और हिंसा से चालित नहीं, बल्कि सत्य, शुचिता, अहिंसा और सेवा भाव की ओर जाता था।

हिंदुत्व की उनकी उस परिभाषा का आधार पुरातन पंथ और शास्त्र नहीं, बल्कि विभिन्न धर्मों और पंथों के बीच किसी समरसता के तत्व की खोज थी। गांधी के इस हिंदुत्व में नैतिक आचरण के आग्रह बुद्ध धर्म से आते थे, अहिंसा का रास्ता जैन धर्म से और मनुष्य मात्र के लिए सेवा भाव का तत्व ईसाई धर्म से। उनके हिंदुत्व की इस अवधारणा में व्यक्ति की गरिमा के आग्रह नवजागरण काल के मानव मूल्यों से पोषित थे। विभिन्न धर्मों में निहित किसी आंतरिक शक्ति का वह समन्वय और अनुभवों की सिंथेसिस का वह रास्ता – क्या हम अपने इस दौर में उसका कोई नया विमर्श बना सकेंगे? अहिंसा का वह रास्ता जो सत्य के आग्रह से जुड़ता है और यह सत्याग्रह न्याय की किसी आकांक्षा और किसी नैतिक बल से। संस्कृतियों के बीच बहुलतावाद के वह संभवतः पहले सिद्धान्तकार थे। वह राष्ट्रपिता कहलाए और यह गौरव उन्हें किसी राजनीतिक सत्ता-केंद्र पर काबिज होने के कारण नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के जीवन में मनुष्य की बाहरी और भीतरी स्वतंत्रता के किसी व्यापक अर्थ के अन्वेषक के रूप में मिला था।

एक बड़ी और सशस्त्र सत्ता का मुकाबला करने के लिए गांधी के पास सत्याग्रह का रास्ता ही तो था, जिसमें असहमति का अधिकार सार-तत्व था। और उनकी 150वीं जयंती पर इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि उनकी जयंती मनाने वाले ये सत्ता-केंद्र आज असहमति के सारे स्वरों को ही कुचल देना चाहते हैं। चाटुकार प्रचार-तंत्र, फरेब, व्यक्ति पूजा और विचार शून्य आक्रामकता से भरा हुआ हमारा यह वर्तमान है। लेकिन विचार कभी मरते नहीं। तिमिर आच्छादित समय में वह लौटते हैं। एक नई अंतर्दृष्टि, करुणा और आचरण का नैतिक साहस बन कर।

(साई फीचर्स)