शक़्ल-पुस्तिका और चूं-चूं मुठिया का संदेश

 

 

(पंकज शर्मा)

मैंने अपने सोशल मीडिया की शक़्ल-पुस्तिका (फे़सबुक) और चूं-चूं मुठिया (ट्विटर हैंडल) पर इस हफ़्ते लोगों से उनका यह अनुमान पूछा कि अगर आज लोकसभा के चुनाव हो जाएं तो नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी को 303 से ले कर 200 तक के बीच कितनी सीटें मिलेंगी। बहुमत ने कहा कि 303 तो दोबारा मिलना तय हैं। तकरीबन 30 फ़ीसदी लोगों ने मोशा भाजपा को 200 से 250 के बीच सीटें दीं। लेकिन कइयों ने कश्मीर की परछाईं तले भाजपा को 370 मिलने की बात कही और कुछ ने ताल ठोक कर कहा कि भाजपा की सीटें 400 के पार चली जाएंगी।

इस बीच मैं ने बतौर राजनीतिक विश्लेषक जितनी भी टेलीविजन बहसों में शिरकत की, भाजपा के प्रवक्ताओं को चिल्लाचोट को एक नई ऊर्जा से लबरेज़ पाया, रक्षा विशेषज्ञों की भुजाएं नए सिरे से फड़कती देखीं और दर्शकों को भारत-माता के जयकारों के साथ नया नाच नाचते देखा। दूसरे पहलू की आज के इस शोर में कहीं कोई सुनवाई नज़र नहीं आई। वैसे भी, टूटे-फूटे ही सही, सबसे प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने टेलीविजन परदों का बहिष्कार कर रखा है। देखा-देखी विपक्ष के बाकी कई दलों ने भी अपने प्रवक्ताओ को नज़रबंद कर रखा है। सो, सुनवाई तो तब हो, जब आवाज़ें हों।

यह अलग बात है कि विपक्षी प्रवक्ताओं में अगर वैकल्पिक विमर्श को पेश करने की अक़्ल और लियाक़त होती तो 2014 की गर्मियां ही क्यों आतीं? और, अगर वे आ भी गई थीं तो 2019 में पहले से भी ज़्यादा ताब लेकर क्यों लौट आतीं? मगर आज तो विपक्ष ने बहस के सारे मंच भाजपा के हवाले कर दिए हैं। वह अंधेरे से उलझने के बजाय सुबह की राह तकने के शुतुरमुर्गीय दर्शनशास्त्र का तकिया लगा कर ऊंघ रहा है। मरघिल्ले विपक्ष की इतनी भी हिम्मत नहीं पड़ रही है कि कश्मीर के विमानतल से लौटने का कर्म-कांड पूरा करने के बाद दो-चार दिन के लिए राजघाट पर ही जाकर बैठ जाए।

सो, एक बात तो तय है कि आप लाख अगर-मगर करें, तकनीकी मुद्दे उठाएं और जम्मू के मैदान से ले कर कश्मीर की घाटी और लद्दाख के पहाड़ों की तलहटी तक में अपनी दलीलों के तीर तलाशें, भारतीय जन-मानस के बहुत बड़े हिस्से को अब इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि वह आपकी बातें सुने। धारा 370 की तफ़सील में जाए बिना वह यह मान चुका है कि नरेंद्र भाई ने वह कर डाला है, जिसे करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाया था। भूगोल और इतिहास के तथ्यों को समझाने की आपकी तमाम कोशिशें इस वक़्त फ़िजूल हैं। सब ने अपने कानों में उंगलियां ठूंस ली हैं। सब ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली है।

पांच साल में कितने ख़्वाब सच हुए, नहीं हुए, इसका आकलन करने की आज किसी को भी नहीं पड़ी है। भारत की, ज़्यादा नहीं तो, तीन चौथाई आबादी भविष्य के उन सभी ख़्वाबों को ढोने के लिए कतार-बद्ध खड़ी है, जो उसे अख़बारों के पन्नों, टेलीविजन चौनल और डिजिटल मीडिया के दस्तरख़ान पर परोसे जा रहे हैं। कल को वे सपने कितने साकार होंगे, आज इस पर शोध करने की ज़हमत कौन उठाए? जो उठाए, अपने-अपने ज़हन्नुम में जाए! कोई क्यों सोचे कि सरहदों की धूप-छांव से खेलने वाले सियासतदां इस बार कौन-सी कबड्डी का खेल हमें दिखा रहे हैं? कोई क्यों माथा-फोड़ी करे कि क्यों कभी तो ये ही सरहदें आंसू बहाती हैं और कभी आग उगलने लगती हैं? मुझे नहीं मालूम कि सरहदें दोस्त हैं या दुश्मन? मगर मुझे इतना ज़रूर मालूम है कि दुनिया भर की सरहदों पर दुनिया भर की सियासत भारी है। जब अपने मन की बात सुनाना ही सबसे ज़रूरी हो तो सरहदों से उनके मन की बात कौन पूछे?

मुझे याद है कि पिछले साल अक्टूबर के अंतिम दिन हमारे प्रधानमंत्री ने कहा था कि किसी भी देश के इतिहास में पूर्णता का अहसास कराने वाले पल अक्सर आते हैं। वे पल आपको पूर्णता का अहसास कराते हैं या अपूर्णता का, आप जानें! नरेंद्र भाई उन पलों को लाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। उनका अंतर्मन से मानना है कि कई अधूरे पल लेकर हम आज़ादी के बाद से आज तक चलते आ रहे हैं। इसलिए वे इस अधूरेपन को मिटा कर ही दम लेंगे। जो-जो 70 साल में नहीं हुआ, वे कर के दिखा रहे हैं। वैसे तो मई-2014 के पहले मुल्क़ में कुछ हुआ ही नहीं, इसलिए भी हमारे प्रधानमंत्री को हमारे लिए रात-दिन एक करने पड़ रहे हैं। वे कच्छ से कोहिमा और करगिल से कन्याकुमारी तक सब-कुछ बदलने में लगे हैं। मैं भी उनका यह यज्ञ संपन्न होने की प्रतीक्षा कर रहा हूं। हो जाए तो हर की पौड़ी जाऊं।

इस बार आज़ादी के मौक़े पर लालकिले से कही उनकी एक बात मुझे न तो सोने दे रही और न जागने दे रही है। उन्होंने कहा कि वे समस्याओं को न तो टालते हैं और न पालते हैं। बहुत से और लोगों की ही तरह मैं भी तब से अपनी ठोड़ी पर हाथ रखे सोच रहा हूं कि उनकी इसी हड़बड़-अदा की वज़ह से नोटबंदी न हुई होती तो क्या आज देश आर्थिक मंदी से इस तरह लस्तपस्त पड़ा होता? रात को बारह बजे अगर एक देश, एक टैक्स का घंटा न घनघनाया होता तो क्या आज छोटे-मध्यम कारोबारी इस तरह बिलबिला रहे होते? नरेंद्र भाई के सरपट-अभियानों से बेरोज़गारी इतनी तीखी ढलान पर क्या ऐसे रपट रही होती? कश्मीर की ग़लती सुधारने के लिए अगर मोशा घोड़े पर सवार न होने के बजाय सबको सम्मति देने की राह पर कुछ दिन चल कर ख़ुद भी देख लेते को क्या बिगड़ जाता? अयोध्या में इस दीवाली पर देश को फिर एक पूर्णता का अहसास कराने की उनकी ललक भी हमारे सामने हैं। जो पाल लीं, सो, पाल लीं, अभी तो कैसी-कैसी समस्याएं वे और पालेंगे।

वे दिन हवा हुए जब हमारे राजनेता हर रोज़ खुद को खोद कर देखते थे कि उनकी बुनियाद आज किस जगह है? निजी हवाई उड़ानों से कहीं देश की असली बुनियाद तो नहीं खिसक रही? मगर अब तो वह दौर है, जब शगुन भी सच्चे नहीं रहे। सबकी मांओं की तरह ही मेरी मां भी कहती हैं कि घर की मुंडेर पर जिस सुबह कागा आकर बोलता है, समझ लो, कोई मनचाहा मेहमान आने वाला है। लेकिन पिछले कई बरस से मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है कि यह शगुन होते ही अनचाही घटनाएं क्यों घटने लगती हैं?

जब कुछ लोग दुनिया को झूठा बदलाव बेच रहे हों, तब हम क्या करें? क्या हम उनके दिखाए सपनों को देखते रहें और अपने सपनों को कुछ दिन सोने दें? सबके साथ और सबके विकास के बाद आइए, अब हम मोशा-गीतमाला की तीसरी पायदान – सबके विश्वास – की धुन तेज़ी से बजाएं। उस पर लहरा-लहरा कर नाचें। उसे अपनी आत्मा का अंश बनाएं। पांच साल में प्रभु राम ने जैसे हमारे अब तक के सपने पूरे किए, वैसे ही वे हमारे बाकी सपने भी पूरे करेंगे। सपना देखते समय बीच में मर जाना कोई बुद्धिमानी नहीं है। हमें इन सपनों के मर जाने तक जीते रहना है। इसलिए कि वरना बताएगा कौन कि सपने मर गए हैं! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

(साई फीचर्स)