उफ! मासूमों की मौत व निर्लज्ज सत्ता

 

 

(अजित द्विवेदी)

डेढ़ सौ मासूम जिंदगियों का अनायास चले जाना किसे कहते हैं, इसे क्या नीरो की तरह बंशी बजा रहा कोई शासक समझ सकता है? अगर समझ रहा होता तो अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रहे मासूमों के बीच बैठा कोई नेता क्रिकेट का स्कोर कैसे पूछ पाता? कैसे फूल के गुलदस्ते देकर हंसते हुए दूसरे नेता का स्वागत करता? कैसे कह पाता कि बच्चों की नियति खराब थी, जो वे मर गए? कैसे कोई नेता अपने प्रदेश को ऐसे संकट में छोड़ कर अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने की बेशरम राजनीति में शामिल होता?

पर बिहार में यह सब हो रहा है और ऐसा नहीं है कि पहली बार हो रहा है। पिछले 25 साल से बच्चे एक जैसी बीमारी से मर रहे हैं। हर साल आम और लीची पर बच्चों की मौत का ठीकरा फोड़ कर सत्ता में बैठे लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, अगले साल फिर घटना से रूबरू होने के लिए!

बिहार में पिछले 15 दिन से करीब डेढ़ सौ बच्चे एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम यानी एईएस से मर गए हैं। अभी तक डॉक्टरों को पता नहीं है कि यह बीमारी असल में क्या है और इसका इलाज क्या है। डॉक्टर हवा में तीर चला रहे हैं और इस इंतजार में हैं कि गरमी खत्म हो, बारिश हो, मौसम ठंडा हो और इस बीमारी का कहर कम हो जाए। एक तरफ तो हम चिकित्सा विज्ञान की अभूतपूर्व उपलब्धियों पर इतरा रहे हैं तो दूसरी ओर बुखार जैसे लक्षण वाली बीमारी का पता लगाने में नाकाम हो रहे हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है?

उत्तर बिहार के सबसे बड़े शहर में लगातार मासूमों की जान जा रही है और सरकार चला रही पार्टियों के नेता अपनी राजनीति में व्यस्त हैं।अपने को राजनेता से ज्यादा समाज सुधारक मानने वाले राज्य के मुख्यमंत्री को कभी भी ऐसी घटनाएं विचलित नहीं कर पाती हैं। छपरा के मशरख में जहरीला खाना खाकर स्कूल में 30 से ज्यादा बच्चों के मरने की घटना हो या मुजफ्फरपुर और आसपास के अस्पतालों में सैकड़ों बच्चों के दम तोड़ने का मामला हो, वे उनका हालचाल जानने नहीं जाते हैं।

उनकी संवेदना दूसरे तरीके से भी जाहिर नहीं होती है। सत्ता की संवेदना जाहिर होने का सबसे असरदार तरीका यह होता है कि वह दोबारा ऐसी घटना नहीं होना सुनिश्चित करे। पर अफसोस की बात है कि पिछले दस साल से लगातार मुजफ्फरपुर और उसके आसपास के इलाकों में गरमियों में बच्चे मरते हैं पर गरमियों से पहले इसके बचाव का कोई उपाय नहीं किया जाता है।

हर बार जब यह महामारी फैलती है तो शोध केंद्र खोलने और सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल बनाने की बात होती है। पर फिर सब भूल जाते हैं। नेता भी कैसे याद रखें। आखिर हम कब अस्पताल बनाने और स्कूल खोलने के नाम पर उन्हें वोट देते हैं! जब हम जातिवाद और राष्ट्रवाद के नाम पर वोट देते हैं तो नेता भी सत्ता में आने के बाद उसी हिसाब से काम करते हैं। अगली बार अगर हम उन्हें अस्पताल बनाने और स्कूल खोलने के नाम पर वोट दें, तभी शाय़द उनकी प्राथमिकता भी बदले! वोट की ताकत से उनकी प्राथमिकता बदली जा सकती है हालांकि उनकी हृदयहीनता तो तब भी दूर नहीं की जा सकती है।

इसी रविवार को सारी दुनिया फादर्स डे मना रही थी। जरा सोचें, फादर्स डे के दिन अपने मासूम बच्चों के शव कंधे पर उठाए पिताओं के बारे में! रोती-बिलखती माओं के बारे में! उन हजारों आशंकित माता-पिता के बारे में, जिनके मासूम बच्चे अस्पताल में भरती हैं और अपनी चिकित्सा व्यवस्था के सहारे नहीं, भगवान के भरोसे जीवन की आस लगाए हुए हैं! साथ ही संवेदनहीनता का उत्सव मना रहे राजनेताओं के बारे में भी सोचें, जिनके लिए मासूमों के माता-पिता सिर्फ वोट बैंक हैं और मासूमों की जान की कीमत कुछ भी नहीं! इनके लिए गालिब ने लिखा था – ना वो समझें हैं न समझेंगे मेरी बात या रब, दे और दिल उनको जो न दे मुझको जुबां और!

(साई फीचर्स)