भाजपाई प्रचार से कहानी खुद बयां

 

(अजित द्विवेदी)

दिल्ली विधानसभा के चुनाव की घोषणा के साथ हुए सर्वेक्षणों से वैसे तो नतीजों का अंदाजा हो गया था पर रही सही कसर भाजपा के प्रचार ने पूरी कर दी है। भाजपा नेताओं के तेवर, उनकी बातें और नारे अपनी कहानी खुद बयां कर रहे हैं। भाजपा के तमाम स्टार प्रचारक चाहे कुछ भी कहें उनका मकसद चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम के मुद्दे पर ले जाना है। चाहे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह हों या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, पार्टी के सांसद प्रवेश वर्मा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ या पार्टी के उम्मीदवार कपिल मिश्रा हों सबका भाषण एक ही लाइन पर है। सबको लग रहा है कि शाहीन बाग में नागरिकता कानून के खिलाफ चल रहा आंदोलन उनके लिए दिल्ली की सत्ता की चाबी है और वे चुनाव को भारत-पाकिस्तान की लड़ाई बना कर आम आदमी पार्टी को हरा देंगे।

ऐसा नहीं है कि भाजपा पहले इस तरह की गलतफहमी का शिकार नहीं हुई है। पहले भी इस गलतफहमी में चुनाव हार चुकी है। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को भी अमित शाह ने भारत-पाकिस्तान की लड़ाई बताया था। उन्होंने कहा था कि अगर भाजपा हारती है तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। उनके यह कहने के बावजूद भाजपा न सिर्फ हारी, बल्कि बहुत बुरी तरह से हारी। ऐसे ही पिछले साल के अंत में हुए झारखंड के विधानसभा चुनाव में भाजपा अनुच्छेद 370, राम मंदिर और नागरिकता कानून पर वोट मांगा। हर सभा में अमित शाह ने कहा कि अयोध्या में आसमान छूता मंदिर बनेगा। चार चरण का मतदान बाकी रहते नागरिकता कानून पास हो गया था और हर सभा में कहा जा रहा था कि एक एक घुसपैठिए को बाहर निकाला जाएगा। इसके बावजूद भाजपा हार कर सत्ता से बाहर हुई।

इसके बावजूद दिल्ली के चुनाव में सांप्रदायिक मुद्दों से भाजपा का चिपके रहना यह दिखाता है कि उसके पास राज्य की आम आदमी पार्टी सरकार के खिलाफ कहने को ज्यादा कुछ नहीं है। तभी बदहवासी में भाजपा के नेता मस्जिदें गिराने, शाहीन बाग खाली कराने, हिंदू-मुस्लिम की लड़ाई बनाने, गद्दारों को गोली मारने जैसे नारे लगा रहे हैं या बयान दे रहे हैं। इसके आगे का काम प्रतिबद्ध मीडिया के जरिए कराया जा रहा है, जिसने यह कहना शुरू कर दिया है कि भाजपा नेताओं के सांप्रदायिक बयानों से दिल्ली के मतदाताओं का विभाजन गहरा हो रहा है और पिछले एक महीने में आठ से दस फीसदी अतिरिक्त वोट का रूझान भाजपा की ओर हो गया है।

यह सब किताबी आकलन है। वास्तविक स्थिति यह है कि तमाम सांप्रदायिक बयानबाजी के बाद भी भाजपा जीत की उम्मीद सिर्फ इस आधार पर कर रही है कि कांग्रेस पार्टी वोट काटेगी। कांग्रेस जितनी ताकत से लड़ेगी या जितना वोट काटेगी, भाजपा को उतना फायदा और आम आदमी पार्टी को उतना नुकसान होगा। असल में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 22 फीसदी वोट मिले थे और आप को 17 फीसदी। भाजपा को 54 फीसदी वोट मिला था। इस लिहाज से तो विधानसभा चुनाव में कोई लड़ाई ही नहीं होनी चाहिए। भाजपा का अगर 15 फीसदी वोट भी कम होता है तो कांग्रेस और आप के साझा वोट के बराबर होगा। पर भाजपा को पता है कि विधानसभा चुनाव में मतदान बिल्कुल दूसरे तरीके से होगा। दिल्ली के मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों और राष्ट्रीय चेहरों पर वोट नहीं देंगे। महाराष्ट्र और हरियाणा से लेकर झारखंड तक भाजपा ने यह देखा है।

तभी भाजपा ने दिल्ली के प्रचार में दो बदलाव किए हैं। पहला तो यह कि पार्टी ने विधानसभा का चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ने का फैसला किया। दिल्ली के चुनाव में पहली बार हो रहा है कि भाजपा कोई चेहरा प्रोजेक्ट करके नहीं लड़ रही है। दूसरा काम पार्टी ने यह किया जो अनाधिकृत कॉलोनियों का स्थानीय मुद्दा उठाया और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए भी स्थानीय मुद्दे चुने गए। यह भी संयोग है कि दिल्ली चुनाव से ऐन पहले शाहीन बाग में धरना शुरू हो गया और उसके बाद संयोग से या किसी डिजाइन के तहत दिल्ली के कई इलाकों में इस तरह के धरने शुरू हो गए। धरने पर बैठे लोगों के पहनावे, खान-पान और इलाकों के नाम पर दिल्ली के मतदाताओं का ध्रुवीकरण कराने का प्रयास हो रहा है।

ऐसा होने में मुश्किल यह है कि आम आदमी पार्टी उससे भी ज्यादा माइक्रो लेवल पर जाकर और उससे भी ज्यादा भावनात्मक मुद्दे उठा कर वोट मांग रही है। केजरीवाल ने खुद को दिल्ली के लोगों का केयरटेकर बताया है। उन्होंने कहा है हर घर उनको अपने घर का बड़ा बेटा माने। उन्होंने दिल्ली के लोगों को लिख कर दिया है कि वे कौन-कौन से दस काम सबसे पहले करेंगे। ध्यान रहे हिंदुस्तान के लोगों के मनोविज्ञान में लिख कर देने का अलग ही स्थान है। लिख कर दिया है इसका मतलब उस पर अमल होगा। वैसे भी अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की योजनाओं पर अमल करके दिखाया है।

अगर वोट बैंक के चुनावी विश्लेषण के नजरिए से देखें तब भी केजरीवाल का हिसाब बहुत स्पष्ट है। उन्होंने झुग्गियों में रहने वाले और प्रवासी मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने का लक्षित प्रयास किया है। मुफ्त बिजली-पानी, बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य और फ्री या सस्ते परिवहन की व्यवस्था से यह वर्ग बहुत मजबूती से उनके साथ जुड़ा है। यह वोट पहले भी भाजपा को नहीं मिलता था। इनका जुड़ाव कांग्रेस के साथ था पर पिछले दो चुनाव से ये आप से जुड़े हैं। यह वोट 40 फीसदी से ज्यादा है। प्रवासी मतदाताओं में जो मध्य वर्ग है वह जरूर भाजपा का समर्थक है पर वह दिल्ली का वोटर नहीं है। वह दिल्ली की चौहद्दी में बसे उत्तर प्रदेश और हरियाणा के शहरों में रहता है।

भाजपा के सीएम दावेदार पेश नहीं करने से केजरीवाल को एक बड़ा फायदा यह हुआ कि भाजपा के कोर वोट बैंक यानी पंजाबी और वैश्य में से वैश्य का एक बड़ा वर्ग सहज रूप से उनके साथ जाएगा। उन्होंने महिलाओं के लिए डीटीसी की बसों में यात्रा फ्री की है और छात्रों के लिए भी यात्रा फ्री करने का वादा किया है। महिलाओं को यह भी उम्मीद होगी कि अगर केजरीवाल दोबारा आते हैं तो मेट्रो में भी यात्रा फ्री हो सकती है। पांच साल का केजरीवाल का शासन भ्रष्टाचार से भी पूरी तरह से मुक्त रहा है। यानी लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुफ्त में या सस्ती दर पर मिल रही हैं, भ्रष्टाचार नहीं है या कम से कम उसके आरोप नहीं लगे हैं, नेता के तौर पर केजरीवाल की छवि अच्छी है, उनकी पुण्यता है जो वे खुद को हर घर के बड़े बेटे की तरह पेश कर रहे हैं और सबसे ऊपर वोट का समीकरण उनके पक्ष में है। सबको पता है कि कांग्रेस सत्ता में नहीं आ रही है और जब पिछले 22 साल से दिल्ली के मतदाताओं ने भाजपा को विपक्ष में रखा है तो इस बार भी ऐसी कोई बात नहीं दिख रही है कि लोग भाजपा को एकतरफा वोट दें। जहां तक सीटों की बात है तो जिन थोड़ी सी सीटों पर कांग्रेस दमदार लड़ाई लड़ रही है वहीं पर भाजपा के लिए गुंजाइश है।

(साई फीचर्स)