(यादवेंद्र)
पटना लिटरेरी फेस्टिवल में शिरकत करने दुबई से जब अमला शैलेंद्र मजूमदार पटना आईं, तो अपने साथ पिता की डायरी से वह पन्ना भी लेकर आईं, जिस पर शैलेंद्र की हस्तलिपि में दादा, पिता और गांव का नाम लिखा हुआ था- अख्तियारपुर, आरा। वैसे, अख्तियारपुर कोई अनूठा नाम नहीं है और इस नाम के गांव बिहार के अलग-अलग जिलों में हजारों की संख्या में हैं। ज्यादा भ्रम इसलिए भी पैदा हो गया, क्योंकि एक अख्तियारपुर आरा शहर के पास है, दूसरा रोहतास जिले में (पहले रोहतास जिला आरा का ही हिस्सा था, जो बाद में अलग जिला बन गया)।
लिटरेरी फेस्टिवल के आयोजकों ने अमला जी के अख्तियारपुर जाने की इच्छा प्रकट करने पर अपनी ओर से कोई उत्साह नहीं दिखाया। लेकिन बाद में उनकी इच्छा को देखते हुए श्रीकांत और शिवानंद तिवारी, जो राज्यसभा सांसद और उस इलाके को अच्छी तरह से जानने वाले पूर्व विधायक और राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हैं, ने साथ चलने का अनुरोध स्वीकार किया, तो आयोजक भी राजी हो गए। आरा में कहानीकार नीरज सिंह भी हमारे साथ हो लिए। लेकिन आधे रास्ते पहुंच कर यह दुविधा फिर से सामने आ खड़ी हुई कि हमें शैलेंद्र जी के पुश्तैनी गांव के लिए आरा शहर के पास के अख्तियारपुर जाना है या वहां से ढाई-तीन घंटे के फासले पर रोहतास के अख्तियारपुर गांव में जाना है।
बहरहाल, यह तय किया गया कि पहले आरा वाले गांव चलते हैं। फिर कुछ दिन बाद रोहतास वाले गांव जाकर छानबीन करेंगे। जब हम अख्तियारपुर गांव पहुंचे, तो जहां शिवानंद जी ने कुछ लोगों को पहले से यह सूचना दे दी थी। वहां पहुंचने पर हमें अख्तियारपुर के उस टोले में ले जाया गया, जहां शैलेंद्र जी के पूर्वज रहते थे। हालांकि उनको गांव छोड़े हुए सौ साल से ज्यादा हो गए थे। आधी धूप-आधी छांव वाली बेहद तंग गलियों और फूस-खपरैल की झोपड़ियों वाले टोले में हम बैठे, तो धीरे-धीरे कई लोग बातें करने पहुंच गए। गांव की बेटी के आने से घरों के भीतर बंद औरतों की अमला जी को देख लेने की उत्सुकता परदे के अंदर होने के बाद भी जाहिर थी, हालांकि उनमें से किसी ने भी अमला जी से सीधी बात करने की पहल नहीं की। हम टोले के सबसे बुजुर्ग के घर पहुंचे और शैलेंद्र जी के दादा जी के बारे में बात करने लगे। बुजुर्ग गंभीरता से बातें सुन रहे थे और सिर हिला रहे थे, लेकिन साफ लगता था कि वह स्मृतियों के तार जुड़ नहीं पा रहे हैं- वजह बुढापे के चलते उनका स्मृतिलोप हो या फिर सौ साल से ज्यादा के अंतर को पाट न पाने की मजबूरी। देश-दुनिया में लोगों के सिर चढ़कर बोलने वाला शैलेंद्र जी का नाम गांववालों को गर्व की अनुभूति तो करा ही रहा था। वे हमें आश्वासन दे रहे थे कि जल्द ही ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटा ली जाएंगी और सूचित कर दिया जाएगा।
खैर, हर कोई अमला जी से उनका पता और फोन नंबर लेने को लालायित था और गांव में पक्की सड़क बनवा देने का अनुरोध भी कर रहा था। अमला जी विस्मित थीं। उनके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आ रहे थे और जा रहे थे। उनके पिता के पैतृक गांव की खोजबीन संतोषजनक ढंग से हो नहीं पाई थी, इसलिए किसी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव नहीं दिख रहे थे। पटना लौटने तक मन में कसक बनी रही। हम अपने मिशन पर कामयाब नहीं हो पाए।
यह महज संयोग नहीं है कि जब शैलेंद्र स्थापित गीतकार हो गए और उन्हें हिंदी सिनेमा में टिके रहने का अपने आप पर भरोसा हो गया, तब उन्होंने अपने मन का एक काम करने की ठानी। उनको शुरू से ही अपनी तरह की एक फिल्म बनाने की इच्छा थी, जिसमें किसी भी तरह का बाहरी दखल और दबाव न हो। ऐसा मौका तब आया, उन्हें 1960 के आसपास रेणु जी की कहानी मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम पढ़ने को मिली। उनका दिल इस कहानी पर आ गया था, हालांकि राज कपूर जैसे मित्र ने फिल्म निर्माण का खतरा मोल लेने से उन्हें साफ मना किया था। यह बात बार-बार उद्धृत भी की जाती है। यदि शैलेंद्र का खानदानी इतिहास देखें, तो 100 साल से भी ज्यादा हो गए, जब उनके दादा बिहार के अपने पुश्तैनी गांव से उखड़ कर बाहर चले गए थे। उनका जन्म भी रावलपिंडी में हुआ और मुरी की सैनिक छावनी में बचपन बीता (अब यह दोनों पाकिस्तान में हैं) और फिर मथुरा, उसके बाद मुंबई। देखा जाए, तो शैलेंद्र का बिहार से उस तरह का कोई भौतिक या जैविक संपर्क नहीं रहा था, लेकिन पुश्तैनी भूमि से भावनात्मक जुड़ाव ऐसा था कि पहली फिल्म बनाने के लिए कहानी भी बिहारी परिवेश की ही चुनी। हजारों कहानियों में से रेणु की कहानी का चुनाव इसकी गवाही देता है।
मैंने बार-बार जानकारों से सुना कि लगभग अनुपस्थित रहते हुए भी तकनीकी तौर पर फिल्म के निर्देशन का क्रेडिट बासु भट्टाचार्य के खाते में गया और राष्ट्रपति का सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी उन्हें ही मिला, पर मेरे मन में यह जिज्ञासा बनी रही कि तब फिल्म का निर्देशन आखिर किया किसने? इस सिलसिले में जब मैंने अमला जी से बात की, तो उनका कहना था कि वास्तव में इस फिल्म का निर्देशन शैलेंद्र, रेणु, नबेंदु घोष (पटकथाकार), सुब्रत मित्र (सिनेमेटोग्राफर) और राज कपूर ने मिलकर किया। अंत होते-होते फिल्म पूरा करने का सारा बोझ शैलेंद्र पर आ पड़ा था।
इन सबमें फिल्म से सबसे ज्यादा गहन रूप से जुड़े हुए शैलेंद्र, रेणु और राज कपूर लगभग हमउम्र थे। दो-तीन साल का फर्क एक दूसरे में था, इसलिए इनकी सोच एक पीढ़ी की सोच थी। आजादी के बाद देखे स्वप्न और धीरे-धीरे उनका टूटना लगभग एक समान था। नबेंदु घोष इनमें सबसे बड़े थे, शैलेंद्र से छह-सात साल बड़े और सत्यजित राय की विश्व प्रसिद्ध फिल्मों के छायाकार सुब्रत सबसे छोटे थे। शैलेंद्र से करीब 7 साल छोटे। इन लोगों की टीम ने सामूहिक रूप में जिस तरह इस कहानी को विकसित किया, वह अपने आप में भारत के सांस्कृतिक इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। खास बात है कि बिहारी गांव की महक, बोली, संगीत, परिवेश, लोक आख्यान, वेशभूषा, नदी, झोंपड़ी और बैलगाड़ी आदि की जो छवियां फिल्म तीसरी कसम में देखने में आती हैं, वैसी हिंदी सिनेमा में बिरले उदाहरण हैं।
शैलेंद्र जीते-जी जिस पुश्तैनी इलाके को नहीं भुला पाए और बच्चों के लिए डायरी में अपना पता ठिकाना छोड़ गए, दुर्भाग्य से उस बिहार ने अपने इस चमकते हीरे को सम्मान देकर आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बना कर नहीं रखा।
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