जब वीपी सिंह और देवीलाल में आने लगी दूरी

 

 

(लालू यादव)

नई दिल्ली में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनने के कुछ महीने के भीतर ही सत्ता के दो केंद्र बन गए थे। प्रधानमंत्री वीपी सिंह और उप प्रधानमंत्री देवीलाल। इन दोनों नेताओं ने 1989 में राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार को बेदखल करने के लिए एकजुट होकर काम किया था, लेकिन अब एक-दूसरे को लेकर असहज हो गए थे। कुछ स्वार्थी तत्वों ने देवीलाल को वीपी सिंह के खिलाफ भड़काया, मानो वे राजीव गांधी की सत्ता के खिलाफ संघर्ष करने वाले साथी न होकर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हों। मुझे चिंता होने लगी कि वीपी सिंह और देवीलाल के बीच बढ़ते तनाव से राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार गिर सकती है और इसका असर बिहार में मेरी सरकार पर भी पड़ सकता है। मैंने जनता पार्टी की सरकार को अंदरूनी झगड़े के कारण गिरते देखा था और नहीं चाहता था कि जनता दल का भी ऐसा हश्र हो। अगस्त, 1990 में वीपी सिंह की सरकार को बचाने के लिए मैंने एक फॉर्म्युला ईजाद किया। मैंने किसी भी केंद्रीय मंत्री को जरा-सी भी भनक न लगने देकर प्रधानमंत्री से मिलने के लिए समय मांगा और वह इसके लिए सहज तैयार हो गए। औपचारिकताओं के बाद मैंने उनसे दो टूक कहा, आपको देवीलाल के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, वरना सरकार गिर जाएगी। वीपी सिंह अवाक रह गए। पहली बात, उन्होंने दूर-दूर तक भी कल्पना नहीं की थी कि मैं ऐसा कर सकता हूं। इसके अलावा वह जानते थे कि मैं देवीलाल कैंप का आदमी हूं, लिहाजा मेरी टिप्पणी से उन्हें धक्का लगा। उनका हैरत में पड़ना बहुत स्वाभाविक था कि आखिर मैं क्यों देवीलाल के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कह रहा हूं, जो कि मेरे हितैषी थे। मगर इसके साथ ही वह खुश हुए होंगे कि देवीलाल का एक कट्टर समर्थक उनके खेमे में आ रहा है।

वीपी सिंह तेज दिमाग और अच्छी राजनीतिक सूझबूझ वाले व्यक्ति थे। उन्होंने जवाब दिया, देवीलाल जी जाटों और पिछड़ों के नेता हैं। यदि मैंने उनके खिलाफ कार्रवाई की तो वह देश भर में घूम सकते हैं और प्रचार कर सकते हैं कि मैं पिछड़ा विरोधी और गरीब विरोधी हूं। बेशक वह सही थे। लेकिन मैं भी पूरी तरह से तैयार था। मैंने कहा, इसका भी एक रास्ता है। मंडल आयोग ने 1983 में अपनी रिपोर्ट दी थी, जिसमें उसने सरकारी नौकरियों में पिछड़ा वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण दिए जाने की सिफारिश की थी। उसकी सिफारिश आपके दफ्तर में धूल खा रही है। उसे तत्काल प्रभाव से लागू कीजिए। मेरा पक्का भरोसा था कि यदि ऐसा कर दिया गया तो यह कदम देवीलाल की ओर से वीपी सिंह को पिछड़ा विरोधी बताने के लिए किए जाने वाले किसी भी प्रचार को बेअसर कर देगा। प्रधानमंत्री इसके खिलाफ थे। संभवतः उनको भय था कि इसके फलस्वरूप समाज में बड़े पैमाने पर अशांति फैल सकती है। मैंने जोर देकर कहा कि मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से उनकी राजनीतिक स्थिति मजबूत होगी और देवीलाल के खिलाफ उन्हें ताकत मिलेगी। मैंने वीपी सिंह से आग्रह किया कि वह बिना देर किए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करें। आखिरकार वीपी सिंह सहमत लगे। इसके साथ ही मैंने कहा कि वह पहले मंत्रिमंडल की बैठक बुलाएं और बिना और सोचे रिपोर्ट को लागू करें। शरद यादव और राम विलास पासवान जैसे वरिष्ठ नेताओं को प्रधानमंत्री के साथ मेरी मुलाकात के बारे में पता नहीं था। इसके बाद मैंने उन्हें भरोसे में लिया और हैरत में पड़े इन नेताओं को बताया कि वीपी सिंह मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के लिए सहमत हो गए हैं। मेरे रवाना होने के बाद वीपी सिंह ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और तय किया गया कि रिपोर्ट लागू की जाएगी। वीपी सिंह ने एक विशेष संदेशवाहक के जरिए मेरे पास अधिसूचना की एक प्रति भिजवाई। मैंने उसे अपने ब्रीफकेस में रखा और पटना के लिए रवाना हो गया।

1990 में बिहार में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अगले दिन से ही मैंने हेलीकॉप्टर से राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा शुरू कर दिया। मैं बहुत गरीब वर्ग से आया था और इस तबके से जुड़ना अच्छा लगता था। तकरीबन रोज मैं पटना से उड़ान भरता और हेलीकॉप्टर को चरवाहों, ताड़ी इकट्ठा करने वालों, मैला ढोने वालों, खेतिहर मजदूरों, मछुआरों और सुअर तथा मुर्गी पालने वालों के बीच उतारने को कहता था। उस समय इन लोगों के चेहरों पर जो चमक होती थी, उसे कभी नहीं भूला जा सकता। ऐसे मौकों पर मैं तुरंत उन्हें कुछ इस अंदाज में संबोधित करता- ऐ गाय चराने वालों, ऐ बकरी चराने वालों, ऐ कपड़ा धोने वालों, ऐ सुअर पालने वालों, ऐ मैला ढोने वालों, ऐ बोझा ढोने वालों- पढ़ना-लिखना सीखो। मैंने ऐसी बूढ़ी औरतों को गले लगाने से गुरेज नहीं किया, जिनके कपड़े तार-तार थे, जिनकी आंखों में कीचड़ था। उनकी चिपचिपी आंखों को साफ कर मैंने उनसे कहा, मैं आपका बेटा हूं और आप मेरी मां हैं। मैं मुख्यमंत्री बन गया हूं। अब आपकी सेवा करूंगा। जब मैंने ऐसी औरतों को अपनी बांहों में लिया, तो वे रोने लगीं। ये खुशी के आंसू थे। मैंने शायद ही कभी पटना में दोपहर का भोजन किया। बिना किसी सुरक्षा कवच के मैं अक्सर गरीब खेतिहरों के बीच पहुंच जाता और उनसे सतुआ, नजदीक के तालाब से मछली और अनाज लाने के लिए कहता। गांव में यह मजेदार दावत होती। गरीब किसान आग जलाकर भात और मछली पकाते थे और हम सब मिलकर खाते थे। मैं प्रायः सोरठी-बिरिजाभार, चौता, बिरहा और होली गाने वाले लोक गायकों और संगीतकारों को तलाशता और झांझ और ढोलक के साथ उनकी संगत करता। जब तक मैं गांव में रहता, वहां जश्न का माहौल बन जाता। मैं उनमें घुलमिल जाता और उन्हें उखड़े हुए नाखून दिखाता। मैं उन्हें बताता कि मैं भी कभी गाय और भैंस चराता था। (साभारः लालू यादव की पुस्तक- गोपालगंज से रायसीना)

(साई फीचर्स)