(अजित द्विवेदी)
आम चुनाव 2019 के पहले चरण की 91 लोकसभा सीटों के लिए मतदान में अब दो हफ्ते बचे हैं। ये 91 सीटें 20 राज्यों में हैं। देश के तमाम बड़े और राजनीतिक रूप से अहम राज्यों में इस दौर में मतदान हो रहा है। विपक्ष के नाते कांग्रेस पार्टी को कायदे से इन राज्यों में और बचे हुए दूसरे राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे ज्यादा तैयारी और सबसे व्यवस्थित तरीके से चुनाव मैदान में उतरना था। पर हकीकत यह है कि सबसे कम तैयारी के साथ कांग्रेस चुनाव में उतरी है। सबसे बिखरा हुआ चुनाव अभियान कांग्रेस पार्टी का है और सबसे फिसड्डी टीम भी कांग्रेस की ही है। कांग्रेस का अभियान इतना कमजोर है कि वह एक मजाक की तरह लग रहा है।
इस मजाक को समझने के लिए सबसे पहले उत्तर प्रदेश की बात करते हैं। कांग्रेस इकलौती पार्टी है, जिसका प्रदेश अध्यक्ष किसी दूसरे राज्य से राज्यसभा का सदस्य है और किसी तीसरे राज्य में लोकसभा की सीट तलाश रहा था। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर उत्तराखंड से राज्यसभा के सांसद हैं और मुंबई की किसी सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे। 2017 के मार्च में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने के बाद उन्होंने इस्तीफा दिया था, जिसे मंजूर नहीं किया गया। ध्यान रहे उनसे पहले कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी थी, जिनकी कमान में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ था। कांग्रेस का भट्ठा बैठने के बाद जोशी पाला बदल कर भाजपा में चली गईं और अब राज्य सरकार में मंत्री हैं। बहरहाल, राज बब्बर न तो बहुत बड़े संगठनकर्ता हैं, न उनका बड़ा करिश्मा है और न वे जातिगत समीकरण में फिट बैठते हैं। फिर वे भी तीन साल से ज्यादा समय से प्रदेश अध्यक्ष हैं।
कांग्रेस की तैयारियों का आलम यह है कि राज बब्बर को मुरादाबाद सीट से उम्मीदवार बना दिया गया था, जहां से वे लड़ना ही नहीं चाहते थे। बाद में उनकी सीट बदली गई और अब वे फतेहपुर सिकरी से लड़ेंगे। सवाल है कि क्या कांग्रेस ने बिना प्रदेश अध्यक्ष से पूछे ही उनकी टिकट घोषित कर दी थी? दूसरा सवाल है कि क्या कांग्रेस को नहीं पता था कि 2019 मे लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं और उसमें पार्टी को एक मजबूत संगठन व नेता की जरूरत होगी? ब्राह्मण अध्यक्ष बनाने की चर्चा खुद कांग्रेस के नेताओं ने चलवाई और जितिन प्रसाद का नाम महीनों तक लटकाए रखा। अब जब उनके पार्टी छोड़ने की चर्चा हुई तो कांग्रेस नेताओं के हाथ पांव फूले और किसी तरह से उनको मनाया गया। कांग्रेस को लग रहा है कि प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना कर उसने बड़ा दांव चला है। पर राज बब्बर और जितिन प्रसाद के मामले में दुर्घटना उनके कमान संभालने के बाद हुई है।
दूसरा प्रदेश हरियाणा है, जहां कांग्रेस बिना किसी तैयारी के और बिना कुछ सोचे विचारे चुनाव में उतरी है। पिछले छह साल से कांग्रेस ने ऐसे नेता को प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है, जिसका कोई जमीनी आधार नहीं है। जमीनी आधार वाले इकलौते नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कांग्रेस ने महीनों तक अटकाए रखा और चुनाव की घोषणा के बाद एक समन्वय समिति बना कर हुड्डा को उसका अध्यक्ष बना दिया। दूसरी ओर भाजपा ने सत्ता में होने के बावजूद मेहनत करके पंजाबी, ब्राह्मण और वैश्य का ऐसा समीकरण बनाया है कि मोदी लहर में भी चुनाव जीत गए दीपेंद्र हुड्डा के अपनी रोहतक सीट पर पसीनें छूटे हैं।
कांग्रेस पार्टी ने आंध्र प्रदेश को दांव पर लगा कर तेलंगाना का निर्माण कराया है। पर इसके नेताओं को पता ही नहीं है कि इन दो राज्यों में चुनाव की क्या रणनीति होनी चाहिए। पिछले साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने के बाद कांग्रेस के आठ विधायक पाला बदल कर टीआरएस के साथ जा चुके हैं। आंध्र प्रदेश में वह पहले से जीरो पर है। इन दोनों राज्यों में उसका नतीजा जीरो पर रहने वाला है।
कांग्रेस का चुनाव अभियान कैसे बिखरा हुआ है इसकी मिसाल दो राज्यों दृ दिल्ली और बिहार से भी मिलती है। बिहार में कांग्रेस पार्टी का सहयोगियों के साथ सीट बंटवारा फाइनल होने और उम्मीदवारों की घोषणा से पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पूर्णिया में चुनावी सभा करने पहुंच गए। शनिवार को राहुल पूर्णिया सभा कर आए लेकिन उनके मंच पर कोई उम्मीदवार नहीं था। उस समय तक यह भी पता नहीं था कि पूर्णिया और उसके आसपास की सीटों- किशनगंज, अररिया आदि से कौन चुनाव लड़ रहा है। न तो यह पता था कि सीट किसके खाते में है और न यह पता था कि उम्मीदवार कौन है! यह इस चुनाव का संभवतः सबसे बड़ा मजाक है।
इसी तरह कांग्रेस शीला दीक्षित के साथ भी मजाक करती रही है। उत्तर प्रदेश के चुनाव से पहले उनको वहां मुख्यमंत्री पद का दावेदार बना दिया गया था। उनका क्या हस्र हुआ यह सब जानते हैं। ऐसे ही लोकसभा चुनाव से पहले उनको दिल्ली का अध्यक्ष बना दिया गया। वे अध्यक्ष के रूप में काम करतीं उससे पहले ही प्रभारी पीसी चाको और पूर्व अध्यक्ष अजय माकन ने उनकी राजनीति पटरी से उतार दी। प्रदेश अध्यक्ष को पता ही नहीं था और केंद्रीय नेतृत्व आम आदमी पार्टी से तालमेल के लिए सर्वेक्षण करा रहा था।
कांग्रेस पार्टी का जिन राज्यों में तालमेल हो गया है और वह व्यवस्थित तरीके से चुनाव लड़ती दिख रही है वह भी कांग्रेस की वजह से नहीं है। उन राज्यों के प्रादेशिक क्षत्रपों ने कांग्रेस की नादानियों और कमजोरियों के बावजूद अपनी ओर से उदारता दिखा कर तालमेल किया है। चाहे तमिलनाडु हो या कर्नाटक और महाराष्ट्र हो या बिहार और झारखंड हो सब जगह प्रादेशिक क्षत्रपों की उदारता की वजह से कांग्रेस का तालमेल किसी मुकाम पर पहुंचा है। वरना कांग्रेस के प्रबंधकों और अपनी तिकड़मों के सहारे इन राज्यों में माहौल बिगाड़ दिया था। सो, पिछले साल हुए तीन राज्यों के चुनाव की तरह इस बार भी कांग्रेस कहीं भी भाजपा से लड़ती नहीं दिख रही है। अगर भाजपा घटती है और कांग्रेस बढ़ती है तो यह कांग्रेस की वजह से नहीं होगा, बल्कि लोगों की वजह से होगा।
(साई फीचर्स)