जो सरकार चुन सकते हैं, वे लाइफ पार्टनर क्यों नहीं?

 

 

(सुधीर मिश्र)

सूफी तबस्सुम ने लिखा है-

देखे हैं बहुत हम ने हंगामे मोहब्बत के!

आग़ाज़ भी रुस्वाई अंजाम भी रुस्वाई!!

देख तो रहे ही होंगे, मोहब्बत करने वालों का हाल। सरकार चुनने का अधिकार है पर जीवनसाथी चुनने का नहीं। हाई कोर्ट से लेकर घरों के ड्राइंग-रूम तक हंगामा है। लड़की प्रेमी के साथ फरार है। प्रेमी-प्रेमिका को कोर्ट के बाहर से उठा लिया जा रहा है। घरवाले मान नहीं रहे हैं। समाज स्वीकार नहीं कर रहा। बेचारे प्रेमी जोड़े जज साहब के सामने खड़े हैं। जज साहब सरकार से कह रहे हैं कि इन्हें हिफाजत से रखिए। सवाल उठता है कि आखिर यह नौबत क्यों? चलिए इस सवाल से हटते हैं। देश के हाल पर आते हैं। सभी चाहते हैं कि ऊंच-नीच खत्म हो। जाति-मजहब की टंटेबाजी के बजाए सही मुद्दों पर बात हो। वो समाज कैसे तैयार होगा, जिसमें इंसानियत की पहचान हो न कि जाति या धर्म की। दूसरा सवाल है कि देश कैसे बदलेगा?

अमेरिका की बात करते हैं। जानते हैं वहां आजकल मसला क्या है? आज 21 जुलाई है। आज के ही दिन 50 साल पहले 1969 में नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर पहला कदम रखा था। राष्ट्रपति ट्रंप एक बार फिर चांद पर इंसान भेजना चाहते हैं। वहां बहस है कि फिर मिशन मून पर अरबों डॉलर खर्च करने का क्या फायदा। इधर, अपने मुल्क के खास-ओ-आम को फिक्र है कि इसकी बेटी को उसके बेटे से शादी करनी चाहिए थी या नहीं। समाज के स्तर पर भले ही कम हो। चौनल और सोशल मीडिया तो बौराया-सा है। टीआरपी चांद-सितारों से नहीं ब्राह्मण, ठाकुर, दलित, हिन्दू और मुसलमान से मिलती है। चलिए फिर से आते हैं सवालों के जवाब पर। सवाल नंबर एक कि शादी जैसे मसलों पर हाई कोर्ट में हिफाजत की गुहार क्यों? दूसरा सवाल था कि देश कैसे बदलेगा? दोनों सवालों का एक जवाब युवा ही बदलेंगे देश। अभिभावकों को साथ लेकर। जाति-मजहब की दीवारें तोड़कर। सच कहें तो बदलाव शुरू हो चुके हैं।

अगर आप अदालतों और आर्य समाज मंदिर के विवाह रजिस्टरों को जांचें तो पाएंगे कि हर शादी के मौसम में हजारों ऐसी शादियां हो रही हैं। इनमें जाति या मजहब की दीवार मायने नहीं रखती। मिडल क्लास को छोड़ दें तो, बड़े-बड़े नेताओं, अभिनेताओं और उद्योगपतियों के घरों में जाति, मजहब के मसले कम ही हैं। हाल ही में पश्चिम बंगाल की एक मुस्लिम सांसद ने हिन्दू से शादी की। उससे पहले आरएसएस के एक बड़े पदाधिकारी के परिवार की लड़की की शादी मुस्लिम परिवार में हुई। ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं। दरअसल, बड़े घरों में इस तरह की समस्याएं कभी थी ही नहीं। वैदिक काल में जाएं तो स्वयंवर की परंपरा थी। युवतियां अपना वर स्वयं चुनती थीं। तमाम आदिवासी कबीलों में आज भी यही परंपरा है। विदेशी आक्रान्ताओं के आने के बाद समाज में बदलाव आए। हालांकि, उससे पहले और बाद दोनों के ही वक्त में राजाओं में अपनी वंश परंपरा से दूर के कुल में शादी करने का चलन था।

मिसाल के तौर पर अयोध्या के राजुकमार का विवाह कोरिया की राजकुमारी से हुआ। ऐसे कई प्रमाण हैं। हमारे पुरखों को समझ थी कि इससे नस्लें बेहतर होती हैं। ऐसी वैज्ञानिक और उदार सोच वाले देश में आज युवाओं की शादी पर बहस हो रही है तो अब ठीक से हो। वक्त तेजी से बदल रहा है। इंटरनेट ने क्रांति ला दी है। अभिभावकों और बच्चों के बीच दूरियां काफी बढ़ गई हैं। यकीनी तौर पर यह संक्रमण काल है। सही-गलत का फैसला घरों के भीतर मिल-बैठकर करना होगा। बड़ों को समझना होगा और छोटों को भी। यह ध्यान रखते हुए कि अब हमारा देश भी मिशन मून शुरू करने जा रहा है और कोई विदेशी हमलावर हम पर राज नहीं कर रहा। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि वैदिक काल और आर्यों के दौर में हमारी सोच कितनी प्रगतिशील थी। वैसे अब भी जितना शोर है, हालात उतने खराब नहीं। युवाओं को फैसले करने का हक ज्यादातर अभिभावक दे ही रहे हैं। जां निसार अख्तर के इस शेर से इस बात को यूं समझें-

इतने मायूस तो हालात नहीं!

लोग किस वास्ते घबराए हैं!!

(साई फीचर्स)

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