निमोनिया क्यों है जानलेवा?

 

बीते 13 नवंबर को को विश्व निमोनिया दिवस मनाया गया तो इस बात पर रोशनी पड़ी कि ये बीमारी आज भी कितनी जानलेवा बनी हुई है। सामने आया कि बीते साल इस रोग के कारण आठ लाख शिशुओं की मौत हो गई।

जाहिर है, निमोनिया को लेकर आम जन के स्तर पर जागरूकता फैलाने की जरूरत है। विश्व की स्वास्थ्य एजेंसियों की तरफ से दिए गए आंकड़ों का मतलब है कि पिछले साल हर 39 सेकेंड में एक बच्चे की मौत निमोनिया के कारण हुई।

जबकि हकीकत यह है कि निमोनिया का इलाज संभव है। यानी इस बीमारी को रोका जा सकता है। अतः संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ), सेव द चिल्ड्रन समेत चार और स्वास्थ्य एजेंसियों ने सुझाव दिया है कि सरकारों से टीकाकरण में निवेश बढ़ाने के साथ-साथ इस बीमारी के इलाज और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिए।

इन एजेंसियों ने विश्व निमोनिया दिवस के मौके पर कथित रूप से भुला दी गई बीमारी नाम से एक रिपोर्ट जारी की। इन एजेंसियो ने कहा कि तथ्य यह है कि यह आसानी से रोके जाने वाली, इलाज और निदान वाली बीमारी है,

लेकिन हैरान करने वाली बात है कि छोटे बच्चों की जान लेने वाली यह दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी भी है। निमोनिया फेफड़ों से जुड़ी बीमारी है। यह बैक्टीरिया, वायरस या फंगस के कारण होता है।

अगर किसी इंसान को निमोनिया हो जाता है तो उसके फेफड़ों में पस और कई बार पानी भी भर जाता है। मरीज को सांस लेने में दिक्कत होती है। टीकाकरण ही निमोनिया से बचा सकता है। इसका इलाज एंटी बायोटिक्स से भी किया जा सकता है।

कई मामलों में ऑक्सीजन से भी इलाज मुमकिन है। लेकिन गरीब देशों में इस तरह के इलाज तक पहुंच सीमित है। पिछले साल निमोनिया से मरने वालों कुल बच्चों की संख्या में आधे से अधिक बच्चे नाइजीरिया, भारत, पाकिस्तान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और इथियोपिया के थे।

जानकारों के मुताबिक टीका की कमी, सस्ते एंटीबायोटिक और नियमित ऑक्सीजन उपचार की कमी के चलते लाखों बच्चे मर रहे हैं। इस वैश्विक महामारी पर तुरंत अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया की जरूरत है। इलाज पर होने वाले अध्ययनों में निमोनिया पर सिर्फ 3 फीसदी रकम खर्च होती है। यानी खर्च के मामले में निमोनिया मलेरिया से पीछे है। बहरहाल, अब ये कमी भरने की जरूरत है, ताकि शिशुओं की जान बचाई जा सके।

(साई फीचर्स)