(श्रुति व्यास)
इस 14 सितंबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी को राष्ट्रीय संपर्क भाषा बनाने की बात क्या कहीं हर कोई पगला गया। गुस्से में लोग कहने लगे वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? वे हम पर हिंदी थोपना चाह रहे है, वे हमारी क्षेत्रिय भाषाओं को खत्म कर रहे हैं, जैसी तमाम नकारात्मक बातों ने उग्र बहस का रूप लिया। ऐसा रूप की अमित शाह को भी सफाई देनी पड़ी!
लेकिन अमित शाह ने ऐसा गलत क्या कह दिया था? एक क्षण के लिए अनेकता में एकता जैसे चश्मे को उतारे और सोचे व देखे कि आज हम किस हकीकत में फंसे पड़े हैं।
भारत एक संपन्न राष्ट्र है, खासतौर से भाषाई विविधता में। फिर भी इतने बड़े देश का कोई भाषाई गौरव क्या विश्व में झलकता है? क्या लगता नहीं कि भाषाई गौरव नदारत है। बांग्ला, उड़िया, मराठी, तमिल, तेलुगु, कश्मीरी, मणिपुरी जैसी अपनी वे 22 भाषाएं हैं जिन्हें आधिकारिक रूप से मान्यता मिली हुई है। इनका भारत के संविधान में जिक्र है। ये संस्कृति जन्य वे भाषाएं है जिनसे हमारा देश बना है। लेकिन हम किससे बंधे हुए हैं? दुर्भाग्य से उस अंग्रेजी से जिसे हमने गुलामी में हमें एक सूत्र में, एक रखने में, एक-दूसरे को समझने के लिए हमने पुल बनाया हुआ है। यह वह अंग्रेजी है जो विदेशी है जिसने हमारे दिल-दिमाग, हमारे शासन तंत्र, व्यवस्था पर सौ-सवा सौ साल से कब्जा जमाया हुआ है। आजादी के वक्त इस भाषा को उन्नति का वादा माना गया था लेकिन 72 साल बाद हमें क्या प्राप्त है? जवाब है कि इससे हमारी पहचान, हमारी मौलिकता, मासूम बारीकियां मिटी है। तभी क्या यह दुख और दुर्भाग्य की बात नही है जो हम एक भाषा व रवैए में केवल अंग्रेजी से ही देश की एकता व समरूपता पाते हैं?
इसका खराब व बुरा अहसास तब होता है जब आपको लंबे समय तक विदेश में रहना पड़े। तब वहां आपकी भाषा ही आपकी पहचान बनती है और आपका लहजा आपको एक विशिष्टतता प्रदान करता है। जब मैं अपनी उच्च शिक्षा के लिए स्कॉटलैंड में थी तो मैंने वहा पहुंचते ही अपने आपको तुरंत ही एक ब्रिटिश भारतीय के रूप में पाया क्योंकि मेरा लहजा और अंग्रेजी एकदम वैसी ही थी। मेरे अंग्रेज दोस्त तो अक्सर ताज्जुब में पड़ जाते थे और कहा करते थे कि तुम्हारी अंग्रेजी तो हमारे से भी ज्यादा अच्छी है, जबकि यह तो तुम्हारी मातृ भाषा भी नहीं है। मैं इसे तारीफ के तौर पर लेती और गर्व महसूस करती। लेकिन मुझे जल्दी ही इस बात का अहसास होता चला गया कि आखिर मेरी पहचान एक तरह का दिखावा, ढोंग सा बना हुआ है, क्योंकि कुछ भी हो मैं वहा की भीड़ में खपने के लिए अपनी मूल पहचान खो रही हूं और ऐसे देशी न रहना तो मानों सिंपसन का अपू होना!
मुझे जल्दी लगने लगा कि मेरी पहचान नकली, मिथ्या है और कितना गलत है जो हम अपना मूल दरकिनार करके उस भीड़ का हिस्सा बनते हैं जो मोटे तौर पर हमें तीसरी दुनिया के नागरिक के रूप में देखती है। नकलची और दिखावा करने वाले। इस बात का कोई मतलब नहीं है कि अंग्रेजी कितनी अच्छी है। यह अहसास इसलिए नहीं हुआ कि मैं अंग्रेजों के बीच थी, बल्कि असल अहसास तीन भारतीयों से बातचीत के दौरान होता था। प्रबंधन की क्लास में हम तीन लोगों का एक समूह था जिसमें एक मराठी, एक तमिल और मैं थी। हालांकि हम भारत के अलग-अलग प्रदेशों से थे, लेकिन हमारे बीच एक बात जो समान थी वह थी अंग्रेजी भाषा जिसकी वजह से हम एक दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह से जान-समझ पाते थे जबकि हमारे मलेशिया, हांगकांग और चीनी दोस्त बेधड़क अपनी भाषा मेंडेरेन में बात करते थे। इसलिए कई बार मुझे खुद यह सोच कर हैरानी होती थी कि आखिर हम तीनों एक ही देश के हैं और फिर भी उस भाषा में बात करते हैं जो मूल रूप से हमारी है ही नहीं! जबकि दुनिया के दूसरे तीन अलग देशों के लोग अपनी एक ही जुबान में बात करते हैं। उनकी जुबान, उनका अंदाज उनकी राष्ट्रीय पहचान लिए हुए है।
यह सोचते हुए तब भी हैरानी थी और आज भी इस ताजा बयान (अमित शाह के कहे के विरोध में) को देख-सुन हैरान हूं कि कोई शाह, सुल्तान या सम्राट नहीं है….,
एक वक्त था जब हमने शाह, सुल्तान और एक सम्राट को अपने ऊपर बिना किसी प्रतिरोध के अंग्रेजी थोपने की इजाजत दी थी। और आज भी अंग्रेजी को हावी होने दिया हुआ है। बदले में अपनी मातृभाषा (हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं) के विलुप्त होने का खतरा है पर चिंता नहीं। अंग्रेजी ने हमारे दिमाग में गहरी जड़ें जमा ली हैं, इतनी गहरी की हम पूरी तरह से अंग्रेजी की गुलाम हैं। तभी नतीजा यह हुआ कि जो हमारे अपने ही लोग अंग्रेजी बोलना-लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं उन्हें हम उपहास और तिरस्कार भरी नजरों से देखते हैं। कमल हासन और थरूर जैसे लोग अपनी मातृ भाषा को छोड़ कर अंग्रेजी के सबसे बड़े हिमायती बने हुए हैं।
लोगों में, अपने से छोटों में अपनी मातृ भाषा के प्रति लगाव और विश्वास पैदा करने के बजाय ये लोग उनमें अपनी भाषा के प्रति एक तरह की तुच्छता पैदा करने जैसे काम कर रहे है। अपने लोग अपनी भाषा को ही बोलने में अपने को हीन समझते है। अंग्रेजी ने सवा सौ करोड़ लोगों में से 95 फिसदी लोगों को हीनग्रंथी का शिकार याकि मानसिक बीमार बनाया हुआ है लेकिन बावजूद इसके कमल हासन और थरूर जैसे लोग सोचने को तैयार नहीं।
एक बार फिर यहीं कहूंगी कि जब आप विदेश में होते हैं तो इसे महसूस करते हैं, जहां लोग निश्चित रूप से हमे देख यह मान कर चलते हैं कि हम लोग हिंदी बोलते हैं। वास्तव में वे सोचते हैं कि हम हिंदू बोलते (उनकी आंखों से बूझता है) हैं। मतलब वे हमारे धर्म और भाषा को लेकर भ्रम में रहते हैं। हां, पश्चिम और पूरब की दुनिया में हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, परंपराओं और धर्म को लेकर अभी भी एक तरह की अज्ञानता, भोलापन हैं। और इसका जिम्मेवार एक कारण यह भी है कि हम खुद ही अपने भाषायी व्यवहार को लेकर भ्रम और हीनता में जीते हैं।
हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएं हमारे जीवन में सिर्फ मनोरंजन, नृत्य और संगीत की भाषा रहे और अंग्रेजी सत्ता की, पॉवर भाषा बनी रहे, यह वह भयावह गलती है जिसके आगे देश, उसकी व्यवस्था, उसका नागरिक लाचार, अनपढ़ और शोषित हुआ पड़ा है। हम हिंदी के बजाय अंग्रेजी बोलने में ज्यादा गौरव महसूस करते हैं। और जब अंग्रेजी नहीं जानते हुए भी टूटी-फूटी और हास्यास्पद अंग्रेजी बोलते हैं तो माफी मांग लेते हैं। आज की पीढ़ी के साथ बड़ी मुश्किल यही है कि वह अपनी जड़ों से पूरी तरह कट चुकी है और उसे अपनी भाषा का कोई ज्ञान नहीं रह गया है। हिंदी मीडियम जैसी फिल्म में इस स्याह पक्ष को बखूबी उतारा गया है। इसके अलावा आज हर मां-बाप जिस तरह से अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा दिलाने के लिए दबाव में हैं, वह और ज्यादा परेशान करने वाली बात है।
मैं जब तक विदेश में रही तब मैंने किसी भी चीनी, जर्मन या इतालवी को धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल पाने के लिए माफी मांगते हुए नहीं देखा। अरब से आने वाले लोग भी अंग्रेजी नहीं बोल पाने के लिए शर्मिंदा होते नजर नहीं आए। या कोई फ्रांसीसी कभी इस बात से निराश नहीं दिखा कि वह अंग्रेजी नहीं बोल पा रहा है। इसलिए क्योंकि इन सबमें अपनी भाषा को लेकर गौरव था और है। अंग्रेजी नहीं जानते तो क्या अपनी भाषा तो जानते हैं।
इसलिए यह सवाल उठता है कि हम क्यों नहीं अपनी भाषाओं को लेकर वैसा ही गौरव अपने भीतर नहीं जगा पाते? अगर अमित शाह अंग्रेजी के बजाय हिंदी को संपर्क भाषा बनाने की बात कर रहे हैं तो क्यों हम उन पर पिल पड़े हैं? क्या सवा सौ करोड़ भारतीयों का भारतीय भाषा में गौरव नहीं बनना चाहिए?
भारत के लिए जरूरी है कि वह अंग्रेजी के बजाय हिंदी और भारतीय भाषाओं के महत्व, अंहमियत और उनकी प्रासंगिकता को बढ़ावा देने के लिए तेजी से काम करे। अंग्रेजी में डुबकी लगा कर हमने अपनी पहचान खो दी है। हम अपनी संस्कृति, इतिहास, परंपराओं, रीति-रिवाजों, लोक-संस्कृति को भुला बैठें हैं। हमें अनेकता में एकता के मर्म को समझना चाहिए और ऐसा सामाजिक और राजनीतिक माहौल बनाना चाहिए जिससे हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की उन्नति और भाषाई एकता अपने आप बने। हमें अंग्रेजी और उसकी दबिश, ताकत से आजादी पानी होगी और अपने भाषाई गौरव को बहाल करा दुनिया को बताना होगा कि हमारी भी भाषा है और वह भी परस्पर बात कराने में समर्थ!
(साई फीचर्स)

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