खामख्वाह, क्यों दिवाल पर सिर पीटें?

 

 

(हरी शंकर व्यादस)

यों हिंदू के नसीब में यहूदियों की तरह रोने के लिए, सिर पीटने वाली दिवाल भी नहीं है! इतिहास के पन्नों में जितने जलील और गुलाम हिंदू हुए हैं वैसी यहूदियों पर भी गुजरी। ईसा पूर्व जब यहूदियों के टेंपल माउंट का ध्वंस हुआ तो उसकी बची एक दिवाल से सट कर रोना यहूदियों का कर्म रहा है।लेकिन हकीकत यह भी है येरूशलम कीवैलिंग वॉल यदि यहूदियों के लिए इतिहास को याद रखने और रोने की दिवाल है तो उनके संकल्प-निश्चय का प्रमाण भी है। संकल्प बेघर और इतिहास के थपेड़ों के बावजूद बुद्धि बल और अपने सत्य पर अडिग रहने का। लेकिन दुर्भाग्य जो वैसा डीएनए हिंदुओं का नहीं हुआ। हालांकि हिंदू अपने घर में ज्यादा जलील हुआ। अयोध्या, काशी, मथुरा में मंदिर ध्वंस हुए तो रोने की दिवाल भी नहींछूटी। असंख्य दफा ध्वंस हुआ। उन अनुभवों ने हिंदू दिमाग के चिप की कोडिंग में नैराश्य, कोऊ नृप हो हमें का हानी, और अवतार से ही उद्धार का वह मनोविश्व बनाया, जिसमें टाइमपास और भजन, अवतार, भक्ति में हिंदू रमता गया। यहूदी दो हजार साल एक दिवाल के आगे आंसू बहा अपने को बार-बार पुनर्जागृत करते रहे। संघर्षशील रहे। वक्त के परिवर्तनों को स्वीकारा। कुएं के मेढक नहीं हुए। ठीक विपरीत हम हिंदू अपनी खोल में बंद औरनैराश्य, नियति की भजन संध्या से एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे के इंतजार में टाइमपास करते गए। पुरुषार्थ, बुद्धि पर विश्वास नहीं और आस्था-भक्ति में इंतजार अवतार का।

ये सब बातें आम हिंदू मानस के लिए बेमतलब हैं। वह इतना लंबा या वैलिंग वॉल का कालखंड लिए हुए सोचा नहीं करता। हिंदू के दिमाग की प्रोग्रामिंग में सीधे या तो वेद, महाभारत-रामायण, पुराण, सोने की चिड़िया वाला युग है या वर्तमान के अवतार और उनका श्रंगार व लीलाएं हैं। राष्ट्र- राज्य की अवधारणा, शासन व्यवस्था और संविधान भले ब्रितानी संसदीय प्रणाली के टैंपलेट में बने हो लेकिन राजनीति, राजनीतिक चेतना और व्यवस्था का व्यवहारअवतार, भक्ति, अंधविश्वास, जातीय समाज और मनसबदारी वाला ही है। इन्हें उन्हीं नेताओं ने कैश कराया, जिन्होंने भक्ति बनवाई। झूठ और अंधविश्वास फैलाया।

चार दिन पहले मुझे एक पत्रकार ने चिंता से कहाकि हमारी पीढ़ी ने (1975 से 1990 के वैचारिक और आजादी के उफान के दौर वाली) समझा हुआ है कि सत्य और झूठ में भेद कैसे करें। मैं पहले दस अखबार पढ़ता था, टीवी चौनल देखा करता था। झूठ समझते हुए टीवी चौनल्स देखना बंद किया। अखबार कम कर दो मंगाने लगा। उसमें भी जानकारी जान पन्ने पलटता हू। भला प्रोपेगेंडा और झूठ क्या पढ़ना। मगर नई और आगे की पीढ़ी तो एक से नैरेटिव, एक से झूठ में पकती जाएगी। जब व्हाट्स अप, सोशल मीडिया समझ-जानकारी की गंगा हो गए हैं तो दिमाग प्रदूषित, सड़ा बनेगा ही। 18-25 वर्ष की उम्र की यदि दो पीढ़ी ताला लगी बुद्धिवाली हुई, भक्ति में डूबी हुई बनती गई तो वैश्विक प्रतिस्पर्धा वाली इस सदी में भारत का आगे क्या होगा, इस पर क्यों नहीं कुछ सोचते?

हां, सकंट गहरा है। सर्वशिक्षा अभियान ने गांव-कस्बों-शहरों में बिना परीक्षा दिए पास होते हुए लड़के-लड़कियों की जो फौज बनाई है, फोन-व्हाटसअप से जो दिमागी प्रदूषण बन रहा है उससे मेरा भी मानना है कि 21वीं सदी भारत की मेधा के लिए ज्यादा बुरी हो सकती है। सोचा जाना चाहिए।

पर खामख्वाह क्यों दिवाल पर सिर पीटें? मोदीजी हैं सब ठीक कर देंगे। विष्णु भगवानजी का अवतार हिंदुओं ने पाया हुआ है तो सब ठीक ही होगा। सभी को आरती में शामिल रहना चाहिए। मुझे भी सुबह-शाम तमाम मीडियाकर्मियों की तरह मोदीजी की आरती उतार उसकी धूप को सुबह लिख कर पाठकों का बांटना चाहिए। मतलब बुद्धि पर ताला लगा कर नदी के प्रवाह में बहो।

हां, ऐसा ही फिलहाल भारत राष्ट्र-राज्य में प्रवाह, नसीहत भरा विचार है। ऐसा नेहरू, इंदिरा और कांग्रेसवाद के समय़ भी था। दो सीट में सिमटने के बाद अटलबिहारी वाजपेयी जैसे बुद्धिमान भी कहते थे जाएं तो जाएं कहां और करें तो करें क्या!

सो, विवशता, निराशा, हताशा एक पहलू है तो दूसरी और भक्ति, गुलामी, भजन सिक्के का दूसरा पहलू है। तभी पूरा सिक्का गड़बड़ दिमागी चिप की गड़बड़ प्रोग्रामिंग में गुंथा हुआ है। बुद्धि और बौद्धिक जिंदादिली से विहिन कौम की मनोदशा से प्रकट यह वह लाचारगी है, जो नागरिक को किंकर्तव्यविमूढ़ बनाती है। भेड़ भाव बनवा देती है।

मगर मैं हिंदू के दिमागी चिप की गुलामी, भक्ति वाली प्रोग्रामिंग से मुक्त स्वतंत्र व्यवहार की जिद लिए हुए हूं। अपना आग्रह है कि सोचते रहना चाहिए। मजा और पुरुषार्थ धारा के विपरीत तैराकी में है। भेड़ और कछुआ जीवन भी भला कोई जीवन है!हमें जिद रखनी चाहिए कि सरकार माईबाप नहीं हुआ करती, बल्कि जनता माईबाप है। सरकार की भक्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि उससे जवाब मांगा जाना चाहिए। हम भेड़ नहीं जो अपना रास्ता खुद नहीं बना सकते। हमें गड़ेरिया नहीं, बल्कि ऐसा नेता चाहिए जो लीड़ करे, जो विकल्प बनाए, संस्थाएं बनाए, आजादी बनाए, लोगों को निडर बनाए और कौम, धर्म जिंदादिलव बेखौफ बने।

इसलिए भी क्योंकि इतिहास (पौरोणिक नहीं जाग्रत) गवाह है कि दुनिया में वे लोग, वे सभ्यताएं, वे धर्म विजेता रहे हैं जो आजादी, उद्यम और बुद्धि, रिजनिंग की फितरत में जीय़े हैं। जो सचमुच आजादी के जिंस लिए हुए हैं। मैं अमेरिका का पुराना मुरीद हूं। अपना मानना था, है और रहेगा कि आधुनिक काल के वैभव और मानव के देवतुल्य बनने याकि मंगल में बस्ती बनाने के मुकाम का आशीर्वाद मानव को अमेरिका से प्राप्त है। अमेरिका से बुद्धि और आजादी का वह विस्फोट हुआ, जिससे मानव की देवतुल्य उपलब्धियां बनीं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अमेरिका उस देश, उस कौम का नाम है, जहां दो सौ साल से सात समंदर पार कर वे तमाम लोग पहुंचे और बसे जो दिमाग के चिप में कुछ करने, आजादी से अपने सपनों को साधने का लक्ष्य लिए हुए थे। यही जिंदादिल- विजेता सभ्यताओं का इतिहास सार है। ग्रीक, रोम, चीन, यूरोपीय और अलेक्जेंडर, नेपोलियन या चंगेज खान के सभ्यतागत उत्कर्ष और पतन की जितनी जैसी गाथाएं हैं उनका सार है कि ये सबभेड़ और गड़ेरिए की समाज-धर्म रचना से मुक्त थे। नया धर्म भी जब बना तो धर्मावलंबियों को तलवार दे कर जीत की ललकार से धर्म यात्रा शुरू कराई गई।

मैं भटक रहा हूं। असली बात धर्म और कौम विशेष की बुनावट के जिंस में, बुद्धि के चिप में प्रोग्रामिंग कैसी है, उसका जीना जिंदादिल इंसान जैसा है या भेड़ की तरह?संदेह नहीं कि राजनीति और नेतागिरी याकि गड़ेरिया होने की कला में हर देश, उसका लोकतंत्र जनता को भेड़ बनाने के जतन लिए होता है। पर लगता है कि जिन सभ्यताओं का विजेता का, तलवार का, आजादी का जितना गहरा अनुभव है वहां न नेता गड़ेरिया होना चाहते हैं और न लोग भेड़नुमा प्रोग्रामिंग लिए हुए।

इसलिए सोचो, बेबाक लिखो। छल, प्रपंच, खामोख्याली से कुछ बनता नहीं है। न नेहरू का समाजवादी स्वर्ग भारत मेंउतरा। न गरीबी हटाओ का इंदिरा गांधी का नारा फलीभूत हुआ और न नरेंद्र मोदी-अमित शाह-संघ हिंदू राष्ट्र बना सकते हैं। हमें सिर्फ इतनी भर कोशिश करनी चाहिए कि भक्ति की अंध आंधी में भी बुद्धि और सत्य के यज्ञ में डटे रहे ताकि कभी न कभी तो हम भेड़-गड़ेरिए की नियति के श्राप से मुक्ति पाए। पर डटे रहना भी भला कैसे संभव है?

(साई फीचर्स)