दिवालिया पाकिस्तान का होगा क्या?

 

 

 

(बलबीर पुंज)

गत दिनों खबर आई कि पाकिस्तानी मुद्रा (करेंसी) अपने सबसे निचले स्तर पर गिरकर एक अमेरिकी डॉलर 164.50 रुपये पर पहुंच गया। प्रति 12 ग्राम सोना भी वहां 80,500 रुपये को पार कर गया। यह आकंड़े इसलिए अचंभित करते है, क्योंकि भारतीय मुद्रा का मूल्य अभी प्रति एक डॉलर 70 रुपये, तो प्रति 10 ग्राम सोना 35,000 रुपये है। बात यहां तक सीमित होती, तो समझा जा सकता था, किंतु जिस प्रकार पिछले दिनों पाकिस्तानी मीडिया (विशेषकर टीवी मीडिया) रिपोर्ट सामने आई- जिसमें प्रतिदिन उपयोग होने वाली खाद्य वस्तुओं जैसे चीनी आदि के लिए लोग कतारों में लगे हुए नजर आए- उसने पाकिस्तान की वास्तविक स्थिति को विश्व के सामने लाकर रख दिया है। वहां बाजारों में टमाटर 120 रुपये किलो, दूध 120 प्रति लीटर, अंडे 120 रुपये प्रति दर्जन के भाव से बिक रहे है, जबकि भारत में इन वस्तुओं की कीमत क्रमशः औसतन 40, 44, 60 है।

इस स्थिति के प्रतिकूल पाकिस्तान में सरकार और उसके अर्थशास्त्रियों द्वारा दावा किया जा रहा है कि लाखों करोड़ों डॉलर के कर्ज में डूबे होने के बाद भी उसकी आर्थिक वृद्धि दर 3.3 प्रतिशत है, जो निर्धारित वार्षिक लक्ष्य 6.2 प्रतिशत से लगभग आधा कम है। क्या पाकिस्तान में अनियंत्रित महंगाई के बीच इस आंकड़े पर विश्वास किया जा सकता है? क्या यह सत्य नहीं कि किसी भी देश की विकास दर पर उसकी जनसंख्या वृद्धि दर प्रभाव डालता है?

पाकिस्तान में जनसंख्या वृद्धि दर प्रतिवर्ष 2.4 प्रतिशत रही है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, जिस गति से पाकिस्तान में लोगों की संख्या बढ़ रही है, उस हिसाब से वर्ष 2050 तक इस इस्लामी देश की आबादी 21 करोड़ की लगभग दोगुना- अर्थात् 40.3 करोड़ हो जाएगी। अब यदि पाकिस्तान की वर्तमान विकास दर 3.3 प्रतिशत और जनसंख्या वृद्धि दर 2.4 प्रतिशत है, तो स्पष्ट है कि पाकिस्तान की आय में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है- अर्थात् उसकी वास्तविक विकास दर 3.3 प्रतिशत से काफी कम है। अब यदि इसमें महंगाई दर को जोड़ लें, जोकि अभी 13 प्रतिशत से अधिक है- तो उस परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान की स्थिति और भी रसातल में नजर आती है- इसका अर्थ है कि वहां गरीबी बढ़ने के साथ बेरोजगारी भी चरम सीमा पर पहुंच चुकी है।

भारत और पाकिस्तान की स्थिति की तुलना की जाएं, तो आर्थिक मापदंडों में भारी असमानता नजर आती है- जैसे सकल घरेलू उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय, कर संग्रह, कर पारदर्शिता, आयात-निर्यात, व्यापार और क्रय-शक्ति आदि में भारत, पाकिस्तान से कहीं आगे है। यह स्थिति तब है, जब वित्त वर्ष 2018-19 के अंतिम तिमाही में गिरावट के बावजूद भारत की विकास दर 6.8 प्रतिशत रही है।

भारत के अतिरिक्त, कुछ मामलों में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल की स्थिति भी पाकिस्तान से स्थिर बनी हुई हैं। जहां एक डॉलर की कीमत 164 पाकिस्तानी रुपये है, तो अफगानिस्तानी मुद्रा 79, बांग्लादेशी टका का 84 और नेपाली रुपया 112 है। यदि इस कसौटी पर भारत से पाकिस्तानी रुपये की तुलना की जाएं, तो पाकिस्तानी एक रुपये की कीमत भारतीय मुद्रा में अठन्नी भी नहीं रह गई है। वर्तमान में पाकिस्तानी एक रुपये का मूल्य भारत में 42 पैसे है।

जहां भारत इसी माह (14 जुलाई) चंद्रयान-2 मिशन को सफल बनाने की कोशिश करेगा, वही पाकिस्तान अपना देश चलाने के लिए वैश्विक मौद्रिक संस्थाओं सहित शेष विश्व के समक्ष हाथ फैलाए खड़ा दिखाई देगा। गत वर्ष जब सेना की अनुकंपा से पूर्व क्रिकेटर इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) की सरकार निर्वाचित हुई, तब वहां के विमर्श में ष्नए पाकिस्तानष् का नारा बड़े जोर-शोर के साथ बुलंद किया गया। अपने देश की कंगाल आर्थिकी में रफ्तार भरने के लिए इमरान ने पहले फिजूलखर्ची रोकने के ढेरों उपाय किए, प्रधानमंत्री आवास में खड़ी कई महंगी गाड़ियों को बेचा, यहां तक कि उन्होंने भैंसों की नीलामी तक कर डाली थी।

आखिर पाकिस्तान को इस स्थिति में किसने पहुंचाया? क्या इसके लिए केवल अकेले इमरान खान की नीतियों को कटघरे में खड़ा करना उचित है, जो अंतरराष्ट्रीय बैठकों में आवश्यक शिष्टाचार की अवहेलना, अपने खराब आचरण और अनैतिक स्वभाव के कारण अक्सर विवादों में रहते है? इस इस्लामी देश का कर्ज बीते एक दशक में छह हजार अरब से बढ़कर 30 हजार अरब पाकिस्तानी रुपये पर पहुंच गया है। कर्ज चुकाने के लिए उच्च ब्याज दर पर कर्ज लेना पड़ रहा है। अभी पाकिस्तान को विश्व बैंक से 722 मिलियन डॉलर का ऋण स्वीकृत हुआ है।

पाकिस्तान की स्थिति कितनी विकराल है, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री इमरान खान के राष्ट्र के नाम उस संबोधन से हो जाता है, जो उन्होंने 11-12 जून की आधी रात को दिया था। बकौल इमरान खान, हमारे पास कर्ज की किस्त चुकाने के लिए डॉलर नहीं बचे हैं। पाकिस्तान पर दिवालिया होने का खतरा है। पाकिस्तान में कर संग्रह से वार्षिक 4 हजार अरब रुपये सरकारी खजाने में आता है। आधी रकम सिर्फ कर्ज की किस्त भरने में जा रही है और शेष से देश का खर्चा नहीं चलाया जा सकता।

पाकिस्तान को इस स्थिति में पहुंचाने में उसके उसी वैचारिक अधिष्ठान ने मुख्य भूमिका निभाई है, जिसने भारत और हिंदू विरोध के नाम पर इस इस्लामी देश के जन्म का मार्ग प्रशस्त किया था। यूं तो पाकिस्तान का एक बड़ा कालखंड सैन्य तानाशाही में गुजरा है, किंतु यह किसी से छिपा भी नहीं है कि पाकिस्तान में निर्वाचित सरकार भी सैन्य अधिष्ठान और इस्लामी कट्टरपंथियों की कठपुतली ही होती है। भारी आर्थिक तंगी के बीच पाकिस्तान के हालिया रक्षा बजट में 4.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी- इसकी तार्किक परिणति है।

अपनी भारत-हिंदू विरोधी वैचारिक पृष्ठभूमि में पाकिस्तान ने निवेश के अनुकूल वातावरण बनाने और औद्योगिक ईकाइयां स्थापित करने से अधिक आतंकवादी शिविरों की संख्या बढ़ाने में सर्वाधिक बल दिया है। एक आंकड़े के अनुसार, पाकिस्तान में कुल निवेशकों (विदेशी सहित) की संख्या 2.32 लाख है, अर्थात् कुल जनसंख्या का मात्र 0.1 प्रतिशत। वही 1971 से पहले पाकिस्तान का हिस्सा रहे बांग्लादेश में आज निवेशकों की संख्या 28 लाख है- यानि अर्थात् कुल आबादी का 1.65 हिस्सा।

आतंकवाद को अपनी राष्ट्रीय नीति का अंग बनाने और दुनियाभर में भारत की कूटनीति के कारण पाकिस्तान अलग-थलग पड़ चुका है। पाकिस्तान के विख्यात अर्थाशास्त्रियों में से एक डॉक्टर कैसर बंगाली कहते हैं, ष्आज पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था ढहने की कगार पर पहुंच चुकी है। जैसा अमेरिका ने सोवियत संघ के साथ किया था, वैसे ही भारत, पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के साथ कर सकता है।ष् गत दिनों ही अंतरराष्ट्रीय एजेंसी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) ने आतंकवादी समूहों के वित्तपोषण को रोकने में विफल पाकिस्तान को ग्रे सूची में डाल दिया था। आज स्थिति यह है कि विश्व की आर्थिक महाशक्तियों में केवल चीन ही पाकिस्तान का मित्र देश बना हुआ, जिसे संयुक्त भारत विरोधी मानसिकता से ऊर्जा प्राप्त होती रहती है। वास्तव में, पाकिस्तान की साम्राज्यवादी चीन से मित्रता ने भी इस इस्लामी देश की स्थिति को कैंसर के फोड़े जैसा बना दिया है। हाल के दिनों में पाकिस्तान द्वारा कर्ज लेने का मूल उद्देश्य, उसपर बढ़ते वामपंथी चीन के ऋण को उतारना ही है।

एक दिलचस्प तथ्य है कि पाकिस्तान के जन्म के लिए इस्लामी कट्टरवादियों (मुस्लिम लीग) को ब्रितानियों के साथ जिस वामपंथी बौद्धिकता और उसकी जहरीली विचारधारा का सहयोग मिला था, 72 वर्ष बाद उस देश में वैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसका विषाक्त दंश खंडित भारत (1947 के बाद) ने शुरूआती 40 वर्षों में वामपंथ के गर्भ से जनित समाजवाद के रूप में झेला था। क्या यह सत्य नहीं कि 1970 के दौर में भारत में भी चीनी, दूध, सीमेंट आदि के लिए जनता को पंक्तियों में लगना पड़ता था? यहां तक, बाद में देश चलाने के लिए भारत की तत्कालीन सरकार को अपना स्वर्ण भंडार विदेशों में गिरवी रखना पड़ा था। किंतु 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद देश की स्थिति बदली और 2016-17 में सुदृढ़ आर्थिक नीतियों के कारण भारत, फ्रांस को पछाड़कर छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (जीडीपी आकार) और विश्व की उभरती आर्थिक शक्ति बन गया है।

क्या पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह कब अपने वैचारिक अधिष्ठान से परित्याग करता है। क्या ऐसा होगा? इसकी संभावना बहुत कम है। फिर भी यदि ऐसा होता है, तो क्या पाकिस्तान का इस विश्व में बने रहने का कोई कारण रहेगा?

(साई फीचर्स)

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