(ब्यूरो कार्यालय)
नई दिल्ली (साई)। लगभग 2 दशक से जेल में बंद फांसी की सजा का इंतजार कर रहे एक कैदी की मौत की सजा बदली जा सकती है। 1994 में 7 लोगों की हत्या का दोषी करार दिए इस शख्स को अपराध के वक्त नाबालिग (जूवेनाइल) होने के कारण रहम मिल सकती है। जूवेनाइल अपराधियों को अधिकतम सजा फांसी नहीं दी जा सकती। 20 साल जेल में बिताने के बाद कोर्ट को यह जानकारी मिली है कि अपराध के वक्त दोषी की उम्र नाबालिग था।
यह है मामला
19 फरवरी 1998 को पुणे की ट्रायल कोर्ट ने 5 महिलाओं और 2 बच्चों की हत्या का दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई थी। पुणे के बाहरी हिस्से कोटहरद में 24 अगस्त 1994 को उसने 7 लोगों की हत्या एक फ्लैट में की थी। एक साल बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी फांसी की सजा को बरकरार रखा। 5 सितंबर 200 को सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई रहम नहीं की। 24 नवंबर 2000 को सुप्रीम कोर्ट ने उसकी रिव्यू पिटिशन भी खारिज कर दी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दोषी को यूं मिला मौका
लगभग डेढ़ दशक बाद 2 सिंतबर 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा पानेवाले मुजरिमों की याचिका पर एक बार और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि मौत की सजा पाए मुजरिमों की रिव्यू पिटिशन पर सुनवाई ओपन कोर्ट में ही होनी चाहिए। इस फैसले के बाद मौत की सजा पाए इस शख्स ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई, लेकिन तब तक 2015 में प्रेजिडेंट प्रणब मुखर्जी ने उसकी दया याचिका खारिज कर दी थी।
सुप्रीम कोर्ट में नाबालिग होने का दावा पेश किया
2016 में सुप्रीम कोर्ट ने इस शख्स की याचिका स्वीकार कर ली और सुप्रीम कोर्ट ने ओपन कोर्ट में केस की सुनवाई का निर्देश दिया। इस बार याचिका में इस शख्स ने दावा किया कि अपराध के वक्त वह नावालिग था। कानून के तहत अपराध के वक्त अगर मुजरिम नाबालिग हो तो उसे फांसी की सजा नहीं दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल पुणे जिला कोर्ट को याचिकाकर्ता के दावे की जांच कर 6 सप्ताह में रिपोर्ट देने का निर्देश दिया।
अपराध के वक्त 12 साल थी मुजरिम की उम्र
जिला जज के द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार, अपराध के वक्त नाबालिग की उम्र 12 वर्ष 6 महीने ही थी। यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट की वकेशन बेंच जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस संजीव खन्ना के सामने पेश की गई। दो जजों की बेंच ने इस हत्या के दोषी करार दिए शख्स को परोल पर अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने की इजाजत दी है। हालांकि, मौत की सजा को बदलने का फैसला वकेशन बेंच ने नहीं किया और इस केस को फिर से नियमित बेंच के पास फैसले के लिए भेज दिया।
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