(ब्यूरो कार्यालय)
नई दिल्ली (साई)। यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक आचार संहिता। देश की सियासत में सात दशक से फंसा यह सवाल एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। शुक्रवार को देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार को टोकते हुए कहा कि 63 साल बीतने के बाद भी इस पर कोई गंभीर कदम नहीं उठाया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने वाले देश के इकलौते राज्य गोवा की मिसाल दी। आपको बता दें कि देश में तमाम मामलों में यूनिफॉर्म कानून हैं, लेकिन शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर अभी भी फैसला पर्सनल लॉ के हिसाब से फैसला होता है।
यह मसला ऐसे समय में उठा है जब केंद्र की मोदी सरकार हाल ही में तीन तलाक और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर ऐतिहासिक फैसला ले चुकी है। बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत करते आए हैं। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद अब इस मुद्दे के फिर से गर्माने के आसार बन गए हैं। आइए यूनिफॉर्म सिविल कोड को ‘डिकोड‘ करने की कोशिश करते हैं और समझते हैं कि यह क्या है और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सियासी गलियारों तक इस पर क्या-क्या हुआ है…
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
गोवा के एक संपत्ति विवाद केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक आचार संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का जिक्र किया। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 44 पर गंभीर न होने को सरकारों की असफलता बताई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू लॉ 1956 में बनाया गया लेकिन 63 साल बीत जाने के बाद भी पूरे देश में समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के प्रयास नहीं किए गए।
शीर्ष कोर्ट ने कहा, ‘यह गौर करने वाली बात है कि संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 44 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत में यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात की गई है और संविधान निर्माताओं ने उम्मीद जताई थी कि स्टेट पूरे भारत में नागरिकों के लिए इसे लागू करने का प्रयास करेगा पर आज तक इस संबंध में कोई ऐक्शन नहीं लिया गया।‘ कोर्ट ने आगे कहा, ‘वैसे तो हिंदू लॉ 1956 में लागू हो गया था लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के कोई प्रयास नहीं हुए जबकि शाह बानो और सरला मुदगल के मामलों में इस बारे में कहा गया था।‘
सुप्रीम कोर्ट ने गोवा की मिसाल क्यों दी
जस्टिस दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ शुक्रवार को गोवा के एक संपत्ति विवाद के मामले की सुनवाई कर रही थी। बेंच का फैसला लिखते हुए जस्टिस गुप्ता ने कहा, ‘भारतीय राज्य गोवा का एक शानदार उदाहरण है, जिसने धर्म की परवाह किए बिना सभी के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू किया है… गोवा में जिन मुस्लिम पुरुषों की शादियां पंजीकृत हैं, वे बहुविवाह नहीं कर सकते हैं। इस्लाम को मानने वालों के लिए मौखिक तलाक (तीन तलाक) का भी कोई प्रावधान नहीं है।‘
35 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था
शाह बानो के मामले में SC ने कहा था, ‘विवादित विचारधाराओं से अलग एक कॉमन सिविल कोड होने से राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा।‘ सरला मुदगल केस में कोर्ट ने कहा था, ‘जब 80 फीसदी लोग को पर्सनल लॉ के दायरे में लाया गया है कि तो सभी नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड न बनाने का कोई औचित्य नहीं है।‘
अब आगे क्या
तीन तलाक, अनुच्छेद 370 पर हाल ही में बड़े फैसले लेने वाली मोदी सरकार पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने को अपने अजेंडे में रखी हुई है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद यह मामला एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। अब बीजेपी का इस पर फोकस बढ़ सकता है। पहले भी सत्तारूढ़ पार्टी सिंगल सिविल कोड की वकालत करती रही है और विरोधियों पर ‘वोट बैंक पॉलिटिक्स‘ का आरोप लगाकर उसे घेरती रही है। आपको बता दें कि पहले कार्यकाल से ही केंद्र की बीजेपी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की कोशिश कर चुकी है। हालांकि, बाकी तीन तलाक और 370 की तरह यूनिफॉर्म सिविल कोड को भी काफी विरोध और विवाद का सामना करना पड़ा था लेकिन अब हालात बदल चुके हैं।
समझिए, यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है
संविधान के अनुच्छेद-44 में समान नागरिक आचार संहिता की बात है और नीति निर्देशक तत्व में वर्णित है। संविधान कहता है कि सरकार इस बारे में विचार विमर्श करे। हालांकि सरकार इसके लिए बाध्यकारी नहीं है। देश में तमाम मामलों में यूनिफॉर्म कानून है, लेकिन शादी, तलाक और उत्ताराधिकार जैसे मुद्दों पर अभी पर्सनल लॉ के हिसाब से फैसला होता है, लेकिन गोवा जैसे राज्य में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है। देखा जाए तो यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे पर बहस 70 साल से चल रही है। यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक संहिता जैसा कानून दुनिया के अधिकतर विकसित देशों में लागू है।
अलग-अलग पर्सनल लॉ के बारे में जानिए
मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्रक्रिया के तहत 3 बार तलाक, तलाक, तलाक कहने से तलाक दिया जा सकता है। नियम के तहत निकाह के वक्त मेहर की रकम तय की जाती है। तलाक के बाद मुस्लिम पुरुष तुरंत शादी कर सकता है लेकिन महिला को 4 महीने 10 दिन तक यानी इद्दत पीरियड तक इंतजार करना होता है। हिंदू मैरिज ऐक्ट के तहत हिंदू कपल शादी के 12 महीने बाद तलाक की अर्जी आपसी सहमति से डाल सकते हैं। अगर पति को असाध्य रोग जैसे एड्स आदि हो या वह संबंध बनाने में अक्षम हो तो शादी के तुरंत बाद तलाक की अर्जी दाखिल की जा सकती है। क्रिश्चियन कपल शादी के 2 साल बाद तलाक की अर्जी दाखिल कर सकते हैं, उससे पहले नहीं। यानी हिंदू, मुस्लिम और ईसाई के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ है।
विरोध और समर्थन
यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। मुस्लिम समुदाय के लोग तीन तलाक की तरह इस पर भी तर्क देते हैं कि वह अपने धार्मिक कानूनों के तहत ही मामले का निपटारा करेंगे। दरअसल, समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार आएगा। अभी कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। उधर, कॉमन सिविल कोड के समर्थकों का कहना है कि सभी के लिए कानून एक समान होने से देश में एकता बढ़ेगी और जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ेगा।

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