(ब्यूरो कार्यालय)
भोपाल (साई)। आरुषि के बच्चों के चहेरे सुबह से ही आज अपनेपन की खुशी थी। बच्चे जून के बाद अपने प्रिय दादू(गुलजार) से मिल रहे थे। किसी ने अपने दादू को फूल देकर अपने प्यार का इजहार किया तो किसी ने जादू की झप्पी देकर भावनाओं का प्रकट किया।
कुछ उन्हें देखते हुए दौड़ लगाकर उनके पास पहुंचे, दादू भी कहां पीछे रहने वाले थे, उन्होंने बच्चों को गले लगाकर खूब लाड किया। उन्हें अपनी बाहों में भर लिया। फिर शुरू हुआ बातों का सिलसिला। कुछ बातें सिर्फ इशारों में थी।
बच्चों की आंखों ने अपने दादू से खूब सवाल किए। दादू ने भी आंखों की आंखों में अनकहे सवालों का जवाब भी अपने जज्बातों से दिया। बच्चों की प्यारी सी मुस्कान ने दादू के बच्चों के साथ बिताए तीस साल के सफर की यादों का झरोखा ही खोल दिया। दादू कभी बड़े भाई थे, उम्र बड़ी तो चाचा हुए… चेहरे पर झूर्रिया बढऩे लगी तो उन्हें नया नाम मिला, दादू…।
स्पेशल चाइल्ड के साथ आरुषि हुआ गुलजार
गुलजार इसके बाद म्यूजिकल क्लास में पहुंचे, यहां उन्होंने बच्चों के साथ प्यार की क्लास लगाई। बच्चों ने बाबा कचरूस की तीन मूर्ति वेस्ट मटेरियल से बनाई है। गुलजार ने कहा बच्चों को ये सीख दी थी कि जिंदगी में कोई चीज वेस्ट नहीं होती। हर चीज जिंदगी में कभी न कभी काम ही आती है। आज ये वेस्ट कला का बेजोड़ नमूना बन गई है।
पियानो पर शब्द हुए गुलजार
दादू के साथ उन्होंने आरुषि की सैर शुरू की। कुछ सालों गुलजार ने उन्हें एक पियानो गिफ्ट किया। जैसे ही गुलजार पियानो के पास पहुंचे, उनकी अंगुलियां खुद को रोक नहीं पाई और खुद ही मधुर धुन छेडऩे लगी। ऐसा लगा मानों सुरों के माध्यम से शब्द खुद गुलजार हो गए हों। इसके बाद बच्चों ने दादू को ट्ंिवकल-ट्ंिवकल लिटिल स्टार और लकड़ी की काटी, काटी पर घोड़ा… गानें पर पियानो पर बजाकर सुनाए।
ये स्पेशल चाइल्ड नहीं है
इस मौके पर गुलजार ने कहा कि मैं इन्हें स्पेशल चाइल्ड नहीं कहता। मैं अंधे को अंधा कहता हूं, इसमें कोई बुराई नहीं है। अगर आप अंधे को अंधा कहोगे तो ऐसा लगेगा कि वे शक्तिविहीन है। स्पेशल चाइल्ड हम जैसे होते हैं। जो देखकर भी दिमागी रूप से दिव्यांग हैं। उन्होंने आरुषि के बारे में कहा कि ये पौधा 30 साल पहले लगाया था। हम तो समय-समय पर कभी इसमें खाद और पानी डाल देते हैं और कभी इनमें धूप आने देते है, जो शमा हमने जलायी है उसे हमें बुझने नहीं देना है।

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