पांढुर्णा में परंपरा के नाम पर फिर खून बहा

 

 

 

 

700 से अधिक घायल

(ब्‍यूरो कार्यालय)

छिंदवाडा (साई)। जिला मुख्यालय से 100 किमी दूर पांढुर्णा में शनिवार को आयोजितगोटमार मेले में पत्थरबाजी रोकने में फिर प्रशासन नाकाम रहा। परंपरा के नाम पर आयोजित खूनी खेल में पांढुर्णा और सांवरगांव के लोगों के बीच हुए पथराव में 700 से ज्यादा लोग घायल हो गए। तीन लोगों को गंभीर चोंटे आई हैं। उन्हें नागपुर ले जाया गया है।

शनिवार को सुबह 9 बजे पांढुर्णा की जाम नदी में गोटमार मेले की शुरूआत चंडिका देवी की पूजन के बाद पलास के पेड़ पर झंडा लगाकर हुई। इसके बाद पांढुर्णा और सांवरगांव के लोगों में नदी में लगे झंडे को तोड़ने के लिए दोनों तरफ से पथराव हुआ। शाम 5.40 बजे पांढुर्णा के लोगों ने झंडा जीत लिया।

भारी भरकम अमला, फिर भी नहीं रोक सके पथराव

गोटमार मेले में सात एसडीएम, 19 टीआई, 36 एसआई, 55 एएसआई, दो सौ एसएफ जवान, 139 वन विभाग के जवान, 300 से ज्यादा पुलिस के जवान तैनात किए गए। इलाज के तिलए 20 से ज्यादा डॉक्टर, एक स्थाई और चार अस्थाई अस्पताल और 12 एंबुलेंस तैनात रही। इतना भारी भरकम अमला तैनात होने के बाद भी पथराव नहीं रुका।

सालों पुरानी परंपरा

गोटमार मेले की शुरुआत 17वीं ई. के लगभग मानी जाती है। महाराष्ट्र की सीमा से लगे पांर्ढुना हर वर्ष भादो मास के कृष्ण पक्ष में अमावस्या पोला त्योहार के दूसरे दिन पांर्ढुना और सावरगांव के बीच बहने वाली जाम मे वृक्ष की स्थापना कर पूजा अर्चना कर नदी के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मारकर एक-दूसरे का लहू बहाते हैं। इस घटना में कई लोग घायल हो जाते हैं। इस पथराव में लगभग 13 लोगों की मौत भी हुई है। इतना ही नहीं कई लोगों ने अपने शरीर के महत्वपूर्ण अग भी खोए हैं जो अपने जीवन मे मेले को गलत मानते हैं और इस पर अफसोस भी जताते हैं।

गोटमार से पहले होती है ध्वज स्थापना

पलाश के वृक्ष के झंडे की स्थापना हो चुकी है। पूजा -अर्चना के बाद मन्नतों का दौर चल रहा है। लगभग एक घण्टे बाद गोटमार शुरू हो सकती है। दो पक्षों के बीच एक दूसरे पर पत्थर बरसाने का सिलसिला शुरू होकर दिन भर चलेगा और लगभग शाम 6 बजे पलाश के वृक्ष के झंडे को पांढुर्ना पक्ष के लोग काटकर माँ चण्डिका के मंदिर मे अर्पण कर गोटमार मेले को खत्म करेंगे। इस दौरान सैकड़ों लोग पत्थरबाजी के चलते घायल भी होंगे।

परंपरा धार्मिक आस्था का प्रतीक मानते हैं

नगर के बीच में नदी के उस पार सावरगांव और इस पार को पांढुर्ना कहा जाता है। कृष्ण पक्ष के दिन यहां बैलों का त्यौहार पोला धूमधाम से मनाया जाता है। इसी के दूसरे दिन साबरगांव के सुरेश कावले परिवार की पुश्तैनी परम्परा स्वरूप जंगल से पलाश के वृक्ष को काटकर घर पर लाने के बाद उस वृक्ष की साज-सज्जा कर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर पूजन किया जाता है। दूसरे दिन सुबह होते ही लोग उस वृक्ष को जाम नदी के बीच गाड़ते हैं और फिर पांढुर्ना पक्ष के लोग अपनो मन्नतों के अनुरूप झंडे की पूजा करते हैं और फिर सुबह 8 बजे से शुरू हो जाता है एक दूसरे को पत्थर मारने का सिलसिला, जो देर शाम तक चलता है।