‘तात्याँ, तुम यहाँ कैसे?’

वीर सावरकर को अंग्रेजों के द्वारा दिया गया घोर कष्ट, भोगी गयी यातनाएँ, भोगलिप्सा के शिकार लोगों को लज्जित कर सही हैं। उन्हीं से अपने कष्टों का बयान सुनते हैं।

जब मैं विदेश को प्रस्थान कर रहा था, उस समय मुझे विदा करने को जो परिवार या मित्र उपस्थित थे, उनमें ज्येष्ठ बन्धु भी थे। उस समय मैंने उनके दर्शन किए थे। उसके बाद लम्बा अर्सा बीत जाने पर अब (अण्डमान) जेल में उनके दर्शन करने थे। मन में आया मिलने से उन्हें अत्यनत दुःख होगा। अतः मिलने की इच्छा छोड़ देनी चाहिए। मगर उसी क्षण विचार आया कि मिलना टालना तो दुःख से डरना होगा। दुःख रूपी गजराज जब पूरा का पूरा अन्दर समा ही गया, तो केवल उसकी पूँछ से क्या डर? वे अपनी आशाओं पर राख डालकर अत्यन्त करूणाजनक स्थिति में आज मुझे देख रहे थे। क्षण भर तो वे विमूढ़ बने रहे। उनके मूक दुःख का परिचायक केवल एक ही उद्गार उनके मुख से फूट निकला-

तात्याँ, तुम यहाँ कैसे?’ ये शब्द उनकी असहाय वेदनाओं के प्रतीक थे और मेरे हृदय में भाले की तरह बैठ गए।”

(प्रेरक प्रसंग)