ऐसी थी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की विश्वसनीयता एवं संवेदना

अपनी आत्मकथा में राम प्रसाद बिस्मिलने एक घटना का वर्णन अपनी फाँसी के दो दिन पूर्व किया – मुझे कोतवाली लाया गया। चाहता तो गिरफ्तार नहीं होता। कोतवाली के दफ्तर में निगरानी में रखा सिपाही सो रहा था। मुंशी जी से पूछा- भावी आपति के लिए तैयार हो जाऊँ? मुंशी जी पैरों पड़ गए कि गिरफ्तार हो जाऊंगा, बाल-बच्चे भूखे मर जाएंगे। मुझे दया आ गयी। नहीं भागा।

रात में शौचालय में प्रवेश कर गया था। इसके पूर्व बाहर तैनात सिपाही ने दूसरे सिपाही से कहा- रस्सी डाल दो। मुझे विश्वास है, भागेंगे नहीं।मैंने दीवार पर पैर रखा और चढ़कर देखा कि सिपाही बाहर कुश्ती देखने में मस्त हैं। हाथ बढ़ाते ही दीवार के ऊपर और एक क्षण में बाहर हो जाता कि मुझे कौन पाता? किन्तु तुरन्त विचार आया आया कि जिस सिपाही ने विश्वास करके इतनी स्वतंत्रता दी, उसके संग विश्वासघात कैसे करूँ? क्यों भागकर उसे जेल डालूँ? क्या यह अच्छा होगा, उसके बाल-बच्चे क्या कहेंगे? जेल में भी भागने का विचार करके उठा था कि जेलर पं. चंपालाल की याद आयी जिनकी कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की जेल में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। उनकी पेंशन में अब थोड़ा सा ही समय बाकी है और मैं जेल से भी नहीं भागा।

ऐसी थी राम प्रसाद बिस्मिलकी विश्वसनीयता एवं संवेदना।

(प्रेरक प्रसंग)

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