बहुत पुरानी बात है। किसी नगर में एक डाकू रहता था। वह लूट-पाट करता और कुछ धन गरीबों में बांट देता और कुछ अपने पास रखता था। एक दिन कुछ व्यापारियों का समूह उसके इलाके से गुजरा। व्यापारियों को डाकूओं ने घेर लिया।
तभी एक व्यापारी, डाकुओं से नजर बचाक दूर पेड़ की आड़ में छिप गया। वहीं नजदीक एक साधू माला जप रहे थे। व्यापारी ने अपने पैसों की थैली साधू को संभालने के लिए दे दी। साधु ने कहा तुम निश्चिंत हो जाओ तुम्हारा धन कहीं नहीं जाएगा। और वह व्यापारी अपने साथियों के पास आ गया।
उन डाकुओं ने व्यापारियों को लूट लिया, लेकिन उस एक व्यापारी ने सोचा कि उसके पैसे सुरक्षित हैं। वह खुशी-खुशी उस साधू के पास पहुंचा। दरअसल वो डाकुओं का सरदार था जो डाकुओं के साथ जा पैसों को बांट रहा था।
व्यापारी यह स्थिति देख निराश हो गया। तब साधू वेशधारी डाकू ने कहा, रुको तुमने जो रुपयों की थैली रखी थी वह ज्यों की त्यों रखी हुई है। तुम इसे ले जा सकते हो। उस डाकू का आभार मानकर वह व्यापारी चला गया।
तब उस डाकु के साथियों ने पूछा, सरदार आपने आया हुआ धन क्यों जाने दिया ? सरदार ने कहा, उस व्यापारी ने मुझे भगवान का भक्त मानकर भरोसे के साथ थैली दी थी। उसी कर्तव्यभाव से मैंने उन्हें थैली वापस दे दी। मैनें उसका विश्वास टूटने नहीं दिया।
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