मर्यादा अभियान बनाम खुले में शौच!

 

(शरद खरे)

यह वाकई दुःखद ही माना जायेगा कि आजादी के साढ़े छः दशकों के बाद भी सिवनी जिले और सिवनी शहर में नागरिक खुले में शौच करने को मजबूर हैं। मैला ढोने की प्रथा पर जैसे तैसे लगाम लग पाया है, पर खुले में शौच पर अंकुश न लग पाना वाकई दुःखद ही माना जायेगा।

खुले में शौच से मुक्ति के लिये सरकारों के द्वारा तरह-तरह के अभियान चलाये गये और खुद ही अपनी पीठ थपथपायी गयी। जमीनी हालात देखने की फुर्सत शायद किसी को भी नहीं रही। जिले में लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के माध्यम से पहले शौचालयों के निर्माण के लिये अनुदान भी दिया गया, किन्तु नतीजा सिफर ही निकला।

सिवनी में चल रहे मर्यादा अभियान की जमीनी हकीकत क्या है, यह देखने सुनने की फुर्सत भी हुक्मरानों को नहीं है। दिल्ली और भोपाल के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर जमीनी योजनाएं बनाने और उनकी समीक्षा करने वाले हुक्मरान, अगर जमीनी हकीकत से रूबरू हो जायें तो वे निश्चित तौर पर सिहर उठेंगे।

खुले में शौच करने से क्या हानि है, इसे रेखांकित करने के लिये सरकारों द्वारा समय-समय पर मीडिया के माध्यम से विज्ञापन भी चलाये जाते रहे हैं। रूपहले पर्दे की अदाकारा विद्या बालन के द्वारा खुले में निस्तार की हानियों को गिनाया जाता रहा। अक्षय कुमार की टॉयलेट फिल्म को भी लोगों ने जमकर सराहा, पर जमीनी हालात देखकर यही कहा जा सकता है कि ये सब कुछ असरकारी नहीं है।

एक समय था जब निस्तार के लिये लोग सुबह सवेरे ही हाथ में पानी के बर्तन लेकर खुले में निकल जाया करते थे। सरकारों ने इस पर रोक लगाने के लिये अनुदान भी दिया। आज के हालात देखकर यही लगता है कि सरकारी अनुदान कागजों में तो सही सही है, किन्तु वह जरूरत मंदों के पास पहुँच नहीं सका है।

यह कुनैन की गोली के मानिंद कड़वी सच्चाई ही माना जा सकता है। जमीनी स्तर पर किसी भी अधिकारी ने भौतिक सत्यापन करने की जहमत नहीं उठायी है। जिले में यह काम जिला पंचायत को करना चाहिये था, किन्तु जिला पंचायत भी अन्य जरूरी कार्यों में ही अपने आप को उलझाये रखने का स्वांग करती नजर आती है।

आश्चर्य तो इस बात पर होता है जब इस सामाजिक और अत्यंत जरूरी काम की मॉनिटरिंग में जनता के द्वारा चुने गये सांसद और विधायक सहित जिला और जनपद तथा ग्राम पंचायतों के नुमाईंदों के द्वारा भी मौन ही रहने में अपनी भलाई समझी जाती है। वे भूल जाते हैं कि जनता ने उन्हें अपना पहरेदार चुना है न कि मौन रहने के लिये!

जिला मुख्यालय की झुग्गी बस्तियों में आज भी पक्के शौचालय न होने से महिलाओं को भी खुले में शौच के लिये जाने पर मजबूर होना पड़ रहा है। मनचलोें और शोहदों द्वारा इस जरूरी दैनिक नित्यकर्म के दौरान भी महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की जाती है। महिलाएं खामोश रहतीं हैं, क्योंकि यह नैसर्गिक आवश्यकता है, उन्हें इसके लिये रोजाना ही बाहर जाना है।

मुसीबत तो तब होती है जब किसी को दस्त लगें, अथवा पेट खराब हो। सुबह-सवेरे तो अंधेरे में लोग नित्यकर्म के लिये बाहर जा सकते हैं, पर दिन ऊगने के बाद उनके लिये यह एक परेशानी का ही सबब साबित होता है। इसके लिये शासन की इमदाद पर्याप्त नहीं मानी जा सकती है। आज जरूरत इस बात की है कि जिला प्रशासन के द्वारा इस योजना के मद में आयी राशि का पूरा उपयोग हुआ है अथवा नहीं इसकी जाँच ईमानदारी से करवायी जाये, ताकि इस भयावह व्यवस्था पर अंकुश लग सके।