शरद पूर्णिमा के दिन हुआ विमर्श चौपाल का आगाज़

 

(ब्यूरो कार्यालय)

सिवनी (साई)। शरद पूर्णिमा के अवसर पर जिला साहित्य मंच के बैनर तले एक विमर्श चौपाल का आयोजन किया गया। इस दौरान विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत चिंतनशील नागरिकों ने, आस्ट्रिया से आयीं विदेशी मित्र की उपस्थिति में राष्ट्र हित से संबंधित अखिलेश सिंह श्रीवास्तव के प्रकाशित आलेख लोकतंत्र की शोभा – राजनीति या लोकनीति पर विमर्श किया गया।

चौपाल में उपस्थित वक्ताओं ने खुल के अपने विचार पटल पर रखे। विचारक नरेंद्र अग्रवाल ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि राजनीति और लोकनीति एक नहीं है, पर राजनीति भ्रष्टाचार की और चली गयी है। आज भी ऐसे नेता हैं जो बहुत ईमानदार हैं। राजनीति से ही लोकनीति निकलती है। उन्नीस सौ सत्तर से देश में बड़ा परिवर्तन आया है। राजनीति को लोकनीति की राह पर चलाना पड़ेगा।

नगर संघ चालाक घनश्याम मिश्र ने कहा, नीति, रीति, परमार्थ, स्वार्थ ये चार शब्द हैं जिन पर जीवन आश्रित है। श्री राम का जीवन चारों प्रकार का है। वर्त्तमान में वो महापुरुष महात्मा गाँधी हैं। आज भी यदि हृ्रदय से प्रयन्त करें तो गाँधी सा बना जा सकता है। त्याग ज़रूरी है, विमर्श के साथ परामर्श की आवश्यकता है।

गीतकार अरुण चौरसिया प्रवाह ने चिंतन बढ़ाते हुए कहा कि राजनीति और लोकनीति से संकेत मिलते हैं, राजा का तंत्र और लोक का तंत्र। लोकनीति पर विमर्श की अवश्यकता है। उन्नीस सौ पचास के बाद से अपने देश में लोकनीति पर चर्चा होना आरंभ हो गयी है। राजतंत्र में जनता की सुनवायी कम होती है उल्टे लोक संसाधन भी आसानी से प्राप्त नहीं होते हैं।

मरझोर निवासी सेवा निवृत्त प्राचार्य, दुर्गाशंकर श्रीवास्तव का विचार था, जय प्रकाश जैसे नेता के नेत्तृत्व में बड़े आंदोलन भी हुए। अन्त्योदय जैसी योजना इसी का उदाहरण है, पर राजनीति के मार्ग में चलके कई नेता पथभ्रष्ट हो गये। लोकनीति के नाम से जुड़ते हैं और अवसर पाकर राजनीति से जुड़े मतलब निकालते हैं।

शिक्षाविद, वरिष्ठ साहित्यकार रमेश श्रीवास्तव चातक ने कहा कि जब-जब राजनीति का पतन हुआ है लोकनीति का भी हास हुआ। धर्म ग्रन्थ भी कहते हैं अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण। सतयुग में राजनीति गुरुओं के हाथ में थी तो फली – फूली; द्वापर में अंधों के हाथों में आयी तो महाभारत हुआ। आपराधिक सोच से लोकनीति संभव नहीं है।

वहीं डॉक्टर अभिषेक श्रीवास्तव ने कहा कि जहाँ स्वार्थ सिद्धी आती है वहाँ राजनीति दिखती है जबकी लोकनीति में निःस्वार्थ भाव छुपे हैं। राजनीति और लोकनीति में छोटा सा अंतर है उसको समझाने के लिये हमें दृष्टि साफ़ रखनी होगी। मानव अधिकार और गाँधी पीस के जगदीश तपिश बोले कि लोकनीति और राजनीति का आपस में संबंध है। देश संविधान से चलता है। मानव अधिकार ही लोकाधिकार हैं। जो सरकार लोकनीति का पालन नहीं कराती उसे सत्ता में रहने का अधिकार नहीं।

मानव अधिकार आयोग मित्र पी.एल. वर्मा का कहना था कि विमर्श चौपाल के माध्यम से आगे बढ़ाना होगा। विधायिका, न्याय पालिका और कार्य पालिका का विशेष स्थान है। राजनीति में सेवाभाव से आने वालों की बहुत कमी आ गयी है, इसीलिये राजतंत्र भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया है। लोकनीति के माध्यम से सब कार्य होना चाहिये।

व्यंग्यकार नरेंद्र नाथ चट्टान ने कहा कि राजनीति शब्द सुनते ही लोगों के मन में गलत धरणा बनती है। हमें तो सिर्फ़ वोट देने का ही अधिकार है। राजनीति के लिये भी योग्यता का निर्धारण होना चाहिये। समाज सेवी अहफाज़ कुरैशी ने राजनीति और लोकनीति को मानवीय सोच से जोड़ते उए उद्बोधन दिया। उन्होंने कहा कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है पर यह ध्यान रखना होगा कि उसका परिणाम क्या निकलेगा…? आज़ादी कीमत माँगती है। हमें सोच बदलनी होगी।

युवा नेता नवेंदु मिश्र ने अपनी बात रखते हुए कहा कि लोकतंत्र एक सेवा भाव है, संघर्ष है जिससे राजनीति में बदलाव आ सकता है। नीति हमेशा ताक़त के इर्द-गिर्द घूमती है।

एन.जी.ओ. संचालक गौरव जैसवाल ने सवाल उठाते हुए कहा कि शब्दार्थ – भावार्थ क्या हैं? शब्दों में न रुकें बल्कि इसके आगे आकर कार्य करना होगा। सोचें लोकतंत्र पर होने वाले हमलों पर कैसे रोक लगायें? इस प्रकार की बैठकों में बुद्धीजीवि लोगों के रूप में सिर्फ़ पुरुष ही क्यों शामिल होते हैं, महिला क्यों नहीं…?

विधिवेत्ता और वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी ने अपनी राष्ट्रीय भावना पटल सम्मुख रखीं। लोकनीति और राजनीति एक दूसरे से अलग नहीं पर राजनीति लोक कल्याणी परिवर्तन को परिवर्तित नहीं होने देना चाहतीं। जब राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री हेतु प्रत्यक्ष प्रणाली के लिये सभी तैयार हैं तो फिर विभेद कैसा? शिक्षा तक का राजनीति कारण हो गया है। पार्टियां प्रत्याशी थोपती हैं। लोकनीति का अच्छा उदाहरण अठ्ठारह सौ संतावन की क्रांति के समय के निर्णय हैं।

सेवा निवृत्त संयुक्त पंजीयक (सहकारिता) दादू निवेंद्र नाथ सिंह ने अपने उदगार रखते हुए कहा कि राजनीति और लोकनीति में अंतर होता है। हमें प्रजातंत्र को समझाना होगा। भले कई सरकारें आयें पर राष्ट्रीय नीति एक होना चाहिये। अधिकारों के साथ ही साथ कर्त्तव्यों के लिये भी जागरूक होना होगा तभी लोकनीति का महत्त्व है।

आस्ट्रिया से आयीं सुश्री लेना ने इस विषय पर अत्यंत संक्षिप्त पर महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि समाज के हर व्यक्ति की आवाज़ मज़बूत होना चाहिये। कवियित्री प्रतिमा अखिलेश ने कहा कि लोकनीति की बुनियादी विचार हमंे बच्चों से सीखना चाहिये। जो भी प्रत्याशी चुनावी प्रक्रिया से विजित हो हमें मन से उसे स्वीकार कर सम्मान करना चाहिये। लोकनीति में मज़बूत सामाजिक भाव निहित होते हैं।

काँग्रेस के वरिष्ठ नेता मोहन सिंह चंदेल ने इस अहम मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मैं राजनीति में होते हुए भी यह स्वीकार करता हूँ लोकतंत्र की नीति तो लोकनीति ही है। निस्संदेह लोकतंत्र की शोभा लोकनीति है पर श्रीकृष्ण को भी महाभारत में लोकनीति के साथ राजनीति का इस्तेमाल करना पड़ा था। इसके लिये राजनीति से जुड़े लोगों को लोकनीति के प्रति जाग्रत कराना होगा।

इस विमर्श के संचालक अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ने कहा कि शब्दों का बड़ा महत्त्व होता है जो लोगों के मन में स्थायी जगह बना लेते हैं ऐसे में लोकतंत्र की शब्दावली लोकाश्रित ही होनी चाहिये। वैशाली प्राचीन भारत का लोकतंत्र था हम तत्समय की शब्दावली से सहायता ले सकते हैं। अधिपति, वाद, सत्तारूढ़ जैसे शब्दों से बचाना चाहिये।