‘जवानी जानेमन’ में छाई सैफ अली खान की ब्लॉकबस्टर कॉमेडी

 

कहानी

डिस्को में मिली एक खूबसूरत लड़की टिया (अलाया फर्नीचरवाला) खुद को प्लेबॉय समझने वाले अधेड़ उम्र के जैज उर्फ जस्सी (सैफ अली खान) से कहती है कि उसे उससे कुछ जरूरी बात करनी है। जस्सी उसे अपने घर लेकर आता है। घर की लाइटें धीमी करता है, परदे गिराता है… लड़की बात करना शुरू करती है, ‘मेरी मां ने कहा है कि इस दुनिया में तीन लोग ऐसे हैं जो मेरे पापा हो सकते हैं। उनमें से एक मर चुका है, एक पेरिस में रहता है और एक आप हो। इस हिसाब से 33.33 प्रतिशत संभावना है कि आप मेरे पापा हो।जस्सी का दिमाग काम करना बंद कर देता है। कोशिश करने पर भी दिमाग के फ्लैशबैक में कुछ नहीं चमकता। अब टिया चाहती है कि जस्सी अपना डीएनए टेस्ट करवाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि वह उसका असली पिता है या नहीं। शुरुआती नानुकर के बाद जस्सी मान जाता है। टेस्ट का नतीजा सकारात्मक आता है और साथ ही डॉक्टर एक और खुशखबरी भी सुना देता है- टिया मां बनने वाली है। एक ही झटके में जस्सी सिंगलसे 21 साल की बेटी का पापाऔर नानाबन जाता है। उसकी दुनिया में जैसे भूचाल आ जाता है। जस्सी, जिसकी जिंदगी का ज्यादातर समय अब तक पार्टियों में शराब पीते और खूबसूरत लड़कियों से दोस्ती करने की कोशिशों में बीता है, उसका पूरा सिस्टम इस खबर को सुनकर हिल जाता है। अब आगे क्या होगा? इस सवाल का जवाब न जस्सी के पास है, न टिया के पास। आगे की फिल्म इन दोनों किरदारों के इस सवाल का जवाब तलाशने की दास्तान सुनाती है।

इसमें कोई शक नहीं कि कहानी आज के दौर की है और युवाओं से सीधे जुड़ती है। ओलो-ओलेगाने पर थिरकते सैफ के साथ झूमती फिल्म एकदम सही शिद्दत के साथ शुरू होती है। पर फिर कई बार लड़खड़ाती है। अलाया की एंट्री के बाद रोमांच बढ़ता है पर कुछ समय बाद फिल्म फिर निर्देशक के हाथ से फिसलती नजर आती है। फिल्म के संवाद रोचक हैं और इनमें कॉमेडी की अच्छी खुराक है। मनोज कुमार खटोई की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। शीर्षक भी इसकी सूरत-सीरत से मेल खाता है। फिल्म में जमीन की खरीद-फरोख्त से जुड़ी भी एक घटनाक्रम है, पर वह फिल्म के बाकी कथानक  के साथ एक संतुलित तरीके से मेल नहीं खाता।

अलाया फर्नीचरवाला में अच्छी संभावनाएं नजर आती हैं। पहली फिल्म के लिहाज से उनका आत्मविश्वास देखने लायक है। फिल्म में चंकी पाण्डे, कुबरा सेठ और कुमुद मिश्रा भी रोचक किरदारों में हैं। तब्बू का रोल बामुश्किल पांच मिनट का है, जिसका मलाल दर्शकों को ही नहीं, पूरी फिल्म को होता है। हालांकि छोटे किरदार में भी वह असरदार रहीं। सैफ अली खान ने फिल्म में एक्टिंग तो अच्छी की है, पर कई बार वह अपने फिल्म कॉकटेलऔर सलाम नमस्तेवाले किरदारों को दोहराते नजर आए। अगर इस किरदार में कुछ नए रंग भी होते तो बेहतर रहता। निर्देशक नितिन कक्कड़ का निर्देशन वैसे तो अच्छा है, पर कहीं-कहीं उनकी पकड़ ढीली पड़ती नजर आती है। हालांकि इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी है इसकी पटकथा। यह अचानक बहुत दिलचस्प होती है तो अचानक धराशायी होने की कगार पर आ जाती है। गानों में गल्लां करदीऔर ओले-ओले 2.0सबसे दिलचस्प हैं। औसत मनोरंजन के लिहाज से फिल्म ठीकठाक है और इसे एक बार देखा जा सकता है।

(साई फीचर्स)

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