दिलो-दिमाग से खेलता है ये ‘जोकर’

 

 

 

 

साल 2008 की फिल्म दि डार्क नाइटमें हमने जोकरके रूप में एक ऐसे विलेन को देखा था, जिसने जोकरों का मुखौटा पहने लोगों की एक पूरी फौज बनाई थी। फौज के हर सदस्य को स्पष्ट निर्देश होते थे कि वह टुकड़ों में बंटे अपराधिक मिशन में अपने से पिछले काम को अंजाम दे रहे व्यक्ति को उसका काम खत्म होते ही मार दे। किसी को पता नहीं होता था कि मिशन में उसके हिस्से का काम खत्म होते ही अगले हिस्से को अंजाम देने वाला शख्स उसकी हत्या कर देगा। इस फिल्म ने एक बड़ा सवाल उठाया था कि अपने ही लोगों को मार देने वाला यह जोकर आखिर कैसे एक वहशी बन गया? इसका जवाब छुपा है कल रिलीज हुई डीसी फिल्म्स निर्मित और टॉड फिलिप निर्देशित फिल्म जोकरमें।

एक ऐसी कहानी जिसका विलेन ही उसका हीरो है। एक जोकर। जो हमेशा नकली हंसी हंसता है। जिसकी मां उसे हैप्पीकहकर बुलाती है, पर जो अपनी पूरी जिंदगी में कभी हैप्पीनहीं रहा। जोकर यानी 40 वर्षीय आर्थर फ्लेक गॉदम नामक काल्पनिक शहर में रहता है। वह दुकानों के बाहर करतब दिखाकर ग्राहकों का ध्यान खींचने का काम करता है। नौकरियों की कमी के चलते गॉदम में सफाईकर्मी हड़ताल पर हैं जिस वजह से हर जगह कूड़ा बिखरा पड़ा है। गंदगी, बदहाली और लोगों में बढ़ रहा आक्रोश, अपराधिक वारदातें- गॉदम का यह मंजर कहीं न कहीं आज के दौर के कई शहरों की भी याद दिलाता है। ऐसे तनाव भरे माहौल में ज्यादातर निचले तबके के लोगों की तरह आर्थर को भी कदम-कदम पर तिरस्कार, घृणा और दुत्कार मिलती है। आर्थर को एक ऐसी बीमारी है, जिसमें वह नकारात्मक भाव मन में आते ही ठहाका मारकर हंसने लगता है। उदासी, निराशा और लाचारी भरी यह हंसी अकसर उसके आसपास वालों की नाराजगी का सबब बन जाती है। ऐसा होने पर आर्थर लोगों को एक कार्ड दिखाता है, जिस पर लिखा है,‘मैं हंसी रोक न पाने की बीमारी से ग्रस्त हूं। कृपया इसका बुरा न मानें।पर समाज की हैवानियत इस कार्ड के संदेश भर से नहीं पिघलती। आखिरकार एक पल ऐसा आता है जब आर्थर के सब्र का बांध टूट जाता है और उसके अंदर का हैवान जग जाता है। इस पूरे बदलाव की प्रक्रिया में किस तरह उसका मनोविज्ञान बदलता है, उसके चेहरे के भाव, उसके अंदाज बदलते हैं, वह देखने लायक है।

यह किरदार कभी दर्शकों को विस्मित करता है तो कभी मनोवैज्ञानिक रूप से उन पर हावी होने की कोशिश करता है। एक्टर वाकीन फीनिक्स ने इसे इस कदर डूबकर निभाया है कि फिल्म खत्म होने के बाद भी यह लंबे समय तक जेहन पर तारी रहता है। मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों के लिए समाज कितना निष्ठुर होता है, खास तौर पर, अगर वह संभ्रांत वर्ग का न हो, फिल्म में इस बात को दिखाया गया है। एक्टर रॉबर्ट डी नीरो एक स्टैंडअप कॉमेडियन, जैजी बीट्स, आर्थर की प्रेमिका और ब्रेट क्यूलन, थॉमस वेन (बैटमैन के पिता) की भूमिका में हैं। सभी ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। लॉरेंस शेर की सिनेमेटोग्राफी और हिल्डर ग्यूनाडॉटर का संगीत फिल्म को उसके गहरे स्याह मूड में ले जाने में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं।

जोकर एक ऐसी फिल्म है, जो बताती है कि कोई इनसान पैदाइशी विलेन नहीं होता। फिल्म एक सामान्य इनसान के खलनायक बन जाने की कहानी सुनाती है, उसके साथ हुई ज्यादतियों की बात करती है। पर फिल्म देखते हुए एक समय ऐसा भी आता है जब आपकी संवेदनाएं जोकर के साथ जुड़ने लगती हैं। और ठीक यही वक्त होता है, जब आपको खुद को यह याद दिलाना होता है कि इस किरदार के साथ भले ही कितनी भी ज्यादतियां हुई हों पर उसका रास्ता गलत है। जोकर के कारनामे डराते हैं…झकझोरते हैं… पहली बार हत्या करने के बाद वह बाथरूम के अंदर ताई ची’ (एक विशेष चीनी नृत्य) करता है। हत्याओं के बाद छप रही खबरों को देखकर अट्टहास करता है। पर उसकी इस क्रूरता में भी एक उदासी है। जो महसूस कराती है कि उसके अंदर कितनी टूटन, कितना बिखराव है। इन्हीं सब वजहों के चलते ऐसा लगता है कि बुनावट, कसावट और दृश्यांकन के लिहाज से तो यह फिल्म जबर्दस्त है, पर विचारधारा और मनोविज्ञान के लिहाज से यह परिपक्व दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई लगती है। इस बात को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता कि निर्देशक ने यह बात पूरी तरह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दी है कि वे जोकर और उसकी तरह मानसिक बीमारियों से जूझ रहे तमाम लोगों के प्रति सहानुभूति तो रखें, पर उन्हें अपना हीरो न बनाएं।

(साई फीचर्स)