सरकार का यह फैसला कि विदेश में इलाज कराने वालों का खर्च अब वह वहन नहीं करेगी, एक सराहनीय निर्णय तो है ही, सही वक्त पर भी लिया गया है। यह फैसला सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा कानून, 2018 के अनुकूल भी है, जो नेपाल गजट में प्रकाशित होने के साथ वजूद में आ गया है।
अब तक वीवीआईपी, वीआईपी, मंत्री और राजनेता इसे अपना विशेषाधिकार समझते थे और विदेश में इलाज के लिए सरकारी खजाने से लाखों रुपये निकालते रहे। आलम यह था कि मोतियाबिंद के ऑपरेशन जैसे साधारण इलाज के लिए भी वे सीधे विदेश का रुख कर लेते थे। हालांकि ज्यादातर लोग इसके लिए भारत जाते रहे, मगर अब बैंकाक और सिंगापुर भी लोकप्रिय गंतव्य बन गए हैं। यह नैतिक रूप से बिल्कुल गलत था, क्योंकि नेपाल के गांवों में रहने वालों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं तक उपलब्ध नहीं, वे सरकारी कोष से धन निकालते रहे।
एक बड़ी शख्सीयत के विदेश में इलाज पर जितनी धनराशि खर्च होती है, उतने में नेपाल के भीतर सैकड़ों लोगों का इलाज हो सकता है। विदेश में बड़ी हस्तियों के इलाज-खर्च पर रोक से अब जो धनराशि बचेगी, उसे अधिक जरूरी मदों में खर्च किया जा सकता है। जैसे, स्वास्थ्य एवं जनसंख्या मंत्रालय के अधीन एक अलग कोष गठित किया गया है, ताकि उन असमर्थ नागरिकों को वित्तीय मदद मुहैया कराई जा सके, जिनको विशेष इलाज की दरकार है। ऐसे जरूरतमंद नागरिकों को देश के सरकारी अस्पताल में कैंसर, पार्किंसन, किडनी से जुडे़ रोगों, सिर व रीढ़ की चोटों और गंभीर एनीमिया के इलाज के लिए चार लाख रुपये तक की मदद मिल सकती है।
नेपाल स्वास्थ्य के क्षेत्र समेत कई अन्य मोर्चों पर भले समस्याओं से जूझ रहा हो, मगर आज यह राजधानी काठमांडू और देश के दूसरे इलाकों में भी बेहतर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का दावा कर सकता है। सरकार लगातार उसे विस्तार देने तथा उसकी गुणवत्ता सुधारने की दिशा में प्रयासरत है, और जिस तरह से निजी चिकित्सा क्षेत्र में अरबों का निवेश हुआ है और हो रहा है, उससे नेपाल भविष्य में मेडिकल हब बन सकता है। (द हिमालयन टाइम्स, नेपाल से साभार)
(साई फीचर्स)