औरतों की भागीदारी

 

अफगानी औरतें सियासी फैसले लेने की प्रक्रिया से बाहर ही रखी जाती रही हैं। लिहाजा, बॉन प्रक्रिया (2001 में नए अफगानिस्तान की स्थापना की कवायद) से भी उन्हें अलग ही रखा गया। तब से अब तक अपने हुकूक हासिल करने और सियासी भागीदारी में उन्होंने जोरदार कामयाबी पाई है। हालांकि, 2015 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव 1325 पर अफगानिस्तान द्वारा एक राष्ट्रीय कार्ययोजना स्वीकार करने के बावजूद औरतों के लिए मौके अब भी सीमित हैं। इस वक्त अमेरिका तालिबान के साथ गंभीरता के साथ बातचीत में जुटा है, ताकि एक ऐसा सियासी रास्ता निकल सके, जो अफगानिस्तान की सियासत में तालिबान के प्रवेश करा सके, और अमेरिका अपनी फौजी टुकड़ियों की तादाद कम से कम कर सके।

हालांकि इस समझौता वार्ता की मेज पर कौन-कौन सी बातें हैं, इसकी तफसील अभी बहुत मालूम नहीं, लेकिन हम यह जानते हैं कि इस बातचीत में एक भी महिला को शामिल नहीं किया गया है। साल 2001 से पहले के तालिबान युग में औरतों को स्कूल जाने, सार्वजनिक रूप से तकरीर करने, और बगैर किसी मर्द के घर से बाहर निकलने की बुनियादी आजादी तक हासिल नहीं थी, ऐसे में आने वाले दिनों में बुनियादी मानवीय अधिकारों और महिलाओं के हक-हुकूक के बारे में इस बातचीत में क्या फैसले होंगे, इसे जानने को महिलाएं ज्यादा उत्सुक हैं।

इस्लाम ने औरतों को तमाम बुनियादी अधिकार दिए हैं, जिसमें कारोबार करने, जुलूस निकालने, तालीम हासिल करने, अपना जीवनसाथी चुनने और सुरक्षा, सेहत और जीने के हक शामिल हैं। नतीजतन, अफगानिस्तान की औरतें चाहती हैं कि उन्हें वे तमाम हुकूक दिए जाएं, जो उन्हें इस्लाम ने नवाजा है। बहरहाल, औरतों को आज सबसे ज्यादा आवाज बुलंद करने की जरूरत है, ताकि वार्ताकार उन्हें नजरंदाज न कर सकें। अफगानिस्तान हुकूमत और अमेरिका के मुख्य वार्ताकार जलमय खलीलजाद को अफगानी औरतों को आश्वस्त करना चाहिए कि तालिबान के साथ शांति-वार्ता के बाद उनके अधिकार बिल्कुल प्रभावित नहीं होंगे। (द डेली आउटलुक, अफगानिस्तान से साभार)

(साई फीचर्स)