जनता के बीच लोकप्रिय चेहरों के अभाव में दिनों दिन चुनाव बनते जा रहे हैं नीरस . . .

लिमटी की लालटेन 635

क्या कारण है कि चुनाव पहले की तरह उत्सव के मानिंद नहीं रह गया . . .

(लिमटी खरे)

एक समय था जब चुनाव का नाम सुनते ही जन मानस की आंखों में चमक आ जाती थी। लोग चुनाव का बहुत ही बेसब्री से इंतजार किया करते थे। अपने लाड़ले नेता की एक झलक पाने के लिए लोग लालायित रहा करते थे। उनके भाषणों में सरकार की उपलब्धियों, सरकार की नाकामियों, विपक्षी नेताओं पर कटाक्ष आदि न जाने क्या क्या हुआ करता था, जो आकर्षण का केंद्र हुआ करता था। कालांतर में चुनाव का वह उन्माद, उत्सुकता आदि कम होता चला गया। आज चुनाव पहले की तरह नहीं रह गए हैं, आज चुनाव रूटीन की तरह ही लड़े जाते दिख रहे हैं।

इसके पीछे वजह यही महसूस हो रही है कि चुनाव आयोग काफी हद तक सख्ती बरतने लगा है और इसके अलावा संचार क्रांति के युग में विशेषकर सोशल मीडिया का जादू सर चढ़कर बोल रही है इसके चलते हर हाथ में मोबाईल है और प्रत्याशियों को अब अपने मतदाताओं तक पहुंचने के लिए व्यक्तिगत संपर्क के बजाए मोबाईल के सहारे पहुंचना बहुत ही ज्यादा आसान प्रतीत हो रहा है। एक समय था जब चुनाव सामूहिक तौर पर जिम्मेदारी के काम हुआ करते थे, अब यह व्यक्तिगत ही ज्यादा प्रतीत हो रहे हैं। अब तो बस इवेंट मैनेजमेंट करने वालों के जरिए प्रत्याशी भी लोगों तक पहुंच बनाते दिख रहे हैं।

वर्तमान समय में हो रहे चुनावों में कोई विशेष मुद्दे न तो पक्ष के पास हैं और न ही विपक्ष के पास। सत्ताधारी दल के पास एक दो चेहरे हैं, जिनके आसपास ही चुनाव की धुरी घूमती नजर आती है, कमोबेश विपक्ष का भी यही आलम है। चुनाव प्रचार में भाषणों को अगर सुनें तो वह चुटीलापन, धारदार आरोप आदि का अभाव साफ तौर पर नजर आता है। अनेक शहरों का तो यह आलम रहा कि पहले चरण के चुनावों के प्रचार के दौरान शहरों में तो प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार के वाहन ही घूमते नजर नहीं आए। प्रत्याशियों अथवा नेताओं के द्वारा मीडिया से भी पर्याप्त दूरी बनाकर रखी गई है।

लोकसभा चुनावों के मतदान का पहला चरण निर्विघ्न संपन्न हो गया। अनेक लोग तो यही पूछते रह गए कि उनके क्षेत्र से फलां पार्टी से कौन सा उम्मीदवार मैदान में है। कार्यकर्ताओं के बीच भी यही चर्चा चलती रही कि उन्होंने ही अपने उम्मीदवार का चेहरा ठीक तरीके से नहीं देखा, ठीक तरीके से कहने में वे ज्यादा जोर देते नजर आते हैं, जिसका तातपर्य यह भी लगाया जा सकता है कि उन कार्यकर्ताओं की पूछ परख, खातिरदारी में प्रत्याशियों ने ज्यादा ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा।

यह तो आलम था चुनाव प्रचार का। इसके साथ ही चुनाव प्रक्रियाओं के बीच देश की शीर्ष अदालत में चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता से संबंधित मसलों पर सुनवाई चलती रही। मामला इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के उपयोग के दौरान वोटर वेरिफाईड पेपर आडिट ट्रेल (वीवीपेट) पर्चियों के मिलान का था, जिस पर माननीय न्यायालय के द्वारा अपना फैसला सुरक्षित रख लिया गया है।

यहां आपको बता दें कि ईवीएम के जरिए मतदान की प्रक्रिया 2004 के लोकसभा चुनावों के दैरान हुई थी। उस दौरान कांग्रेस की सरकार चुनी गई थी। दस साल मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में रही। अब कांग्रेस की ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाती दिखती है, है न आश्चर्य की बात। मामला देश की शीर्ष अदालत में विचाराधनी है। शीर्ष अदालत यह भी कह चुकी है कि ईवीएम से बैलेट पेपर की ओर वापसी का अब विकल्प नहीं रह गया है।

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देखा जाए तो जब मतदाता ईवीएम के जरिए वोट डालता है तब वीवीपेट पर्ची में उसे उसके द्वारा दिए गए वोट के बारे में किसे वोट दिया है यह बात दिखाई दे जाता है, पर जब मतगणना होती है तब ईवीएम में कुछ वोट और वीवीपेट की पर्चियों का मिलान नहीं हो पाने से संदेह बना ही रहता है।

बहरहाल, चुनाव प्रक्रिया में धीरे धीरे बदलाव हो रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। चुनाव आयोग की सख्ती के कारण ही प्रत्याशी हों या सियासी दल, सभी अपनी हदों को पहचानने लगे हैं। संचार क्रांति के युग में सोशल मीडिया के कारण अब प्रत्याशियों की भागदौड़ निश्चित तौर पर बहुत ही कम हो चुकी है। कार्यकर्ता भी सड़कों पर कम ही दिखाई देते हैं। सोशल मीडिया पर दस बीस फोटो अपलोड एवं प्रत्याशी एवं पार्टी के अन्य नेताओं को टैग कर कार्यकर्ता भी अपने कर्तव्यों की इतिश्री करते दिख जाते हैं।

देश के नीति निर्धारक नेताओं को इस बारे में विचार करना होगा कि जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आड़वानी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को देखने और सुनने उमड़ने वाली भीड़ आखिर आज क्यों नहीं उमड़ रही है! क्या कारण है कि आज नेताओं को सुनने खुद आने वाले लोगों को नेताओं को लक्ष्य देकर भीड़ एकत्र की जा रही है! जब चुनाव नहीं होते हैं तब एक सरकारी ईवेंट बनाकर सरकारी खर्चे पर भीड़ क्यों जुटाई जाती है। जाहिर है नैतिकता में कहीं न कहीं कमी महसूस ही की जा रही है, वरना इसका दूसरा क्या कारण हो सकता है!

(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)