जब तक जमीनी स्तर पर कांग्रेस को मजबूत नहीं किया जाता तब तक नहीं हो पाएगी कांग्रेस मजबूत!
(लिमटी खरे)
आधी लंगोट में जिस व्यक्ति ने उन ब्रितानी अंग्रेजों जिनके बारे में कहा जाता था कि उनका सूरज कभी डूबता नहीं है को भारत से भगाया और लौह पुरूष के नाम से प्रसिद्ध सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे महारथियों की भूमि गुजरात में कांग्रेस एक बार फिर अपना अस्तित्व खोजती नजर आई। कुछ खास मौकों पर गांधी टोपी पहने दिखाई देने वाले लक झक श्वेत धवल कुर्ताधारी नेताओं से सजा कांग्रेस का यह सम्मेलन उस शहर में हुआ जहां कभी कांग्रेस के द्वारा इतिहास की नींव रखी थी, अब वह दशकों बाद अपना अस्तित्व वहीं तलाश करती नजर आई।
जानकारों का मानना है कि गुजरात सम्मेलन चुनावी रणनीतियों पर चर्चा के लिए शायद नहीं ही था। इस सम्मेलन को तो कांग्रेस की घटती लोकप्रियता, प्रासंगिता और नेहरू गांधी परिवार की विरासत को ही मजबूत करने की एक कोशिश लोग मान रहे हैं। इस सम्मेलन में एक बार उभरकर सामने आई कि पार्टी का असली मुद्दा क्या है इस बारे में कोई जवाब देने की स्थिति में नजर नहीं आया।
पिछले तीन से चार दशकों के इतिहास पर अगर गौर किया जाए तो कांग्रेस के प्रदर्शन से यह साफ होता ही दिखता है कि चार दशकों में कांग्रेस एक सशक्त विकल्प बनने के बजाए सोनिया और राहुल गांधी के इर्द गिर्द ही परिक्रमा करती नजर आती रही। एक के बाद एक राज्यों में कांग्रेस के हाथ से जिस तरह सत्ता फिसली उसे देखकर यही लगने लगा कि कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा जमीनी स्तर पर पूरी तरह दम तोड़ चुका है।
इस सम्मेलन में एक बात गौर करने वाली थी कि इसमें राहुल गांधी के द्वारा पार्टी की जिला इकाईयों को संपन्न और मजबूत बनाने पर जोर दिया। यह सही भी था, क्योंकि संगठन के जरिए ही सत्ता हासिल की जा सकती है। वहीं यक्ष प्रश्न यही खड़ा हुआ है कि आखिर बिना किसी आर्थिक इमदाद के जिला इकाईयां काम कैसे कर पाएंगी! पार्टी के हर कार्यक्रम के लिए धन की आवश्यकता होती है और अधिकांश राज्यों में कांग्रेस सत्ता में नहीं है, ऐसी स्थिति में संगठन के व्ययों का भोगमान कौन भोगेगा। जाहिर है संपन्न लोगों के हाथों में जिलों की बागडोर सौंपी जाएगी और वे अपने हिसाब से पार्टी को चलाने की कवायद भी करते नजर आएंगे।
आज प्रौढ़ हो रही पीढ़ी ने जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के किस्से सुने या उन्हें टीवी पर अथवा रूबरू देखा होगा। उन्हें कांग्रेस का स्वर्णिम काल याद होगा, पर आज की युवा पीढ़ी को कांग्रेस का जो चेहरा दो तीन दशकों से दिखाई दे रहा है उसके भरोसे तो सत्ता हासिल करना दिन में सपना देखने के समान ही माना जा सकता है।
कांग्रेस की नीतियों को अब उसके सहयोगी ही आंखें दिखाते दिखते हैं। कल तक देश पर एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस को आज चुनावों में गठबंधन कर गठबंधन में शामिल दलों के द्वारा आवंटित सीटें लेने पर क्यों मजबूर होना पड़ रहा है, इस बारे में विचार कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को करना ही होगा। आज कांग्रेस के अध्यक्ष भले ही मल्लिकार्जुन खरगे हैं, पर अभी भी कांग्रेस पूरी तरह राहुल की शेडो से मुक्त नहीं मानी जा सकती है।
राहुल गांधी को अपनी कार्यप्रणाली पर भी विचार करना होगा। कांग्रेस को विपक्ष का नेता बनने का अवसर मिला पर वह उसे भी भुना नहीं पाई। कमोबेश यही आलम अन्य प्रदेशों का भी है। वैचारिक रूप से राहुल गांधी सामाजिक न्याय, रोजगार और कल्याणकारी योजनाओं पर जोर दे रहे हैं। जाति जनगणना, आरक्षण की सीमा बढ़ाने जैसे मुद्दों को उठाना कांग्रेस के लिए नया और साहसिक है, यद्यपि, इस रणनीति का असर मिला-जुला रहा है। कर्नाटक और तेलंगाना में सफलता मिली, पर अन्य राज्यों में कांग्रेस की स्थिति में सुधार परिलक्षित ही नहीं हो पाया। 2014 से 2024 के बीच कांग्रेस ने सिर्फ 9 राज्यों में जीत दर्ज की, जबकि 25 राज्यों में सत्ता गंवा दी। हालांकि 2024 में 99 लोकसभा सीटें और 21.2ः वोट शेयर के साथ पार्टी ने दिखा दिया कि वह अब भी राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद है।
(साई फीचर्स)

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