फीके होते जा रहे होली के रंग, अब नहीं रहा पहले सा उत्साह!
(संजीव प्रताप सिंह)
सिवनी (साई)। जिनकी जिन्दगी की अब शाम हो चुकी है, वे जब अपनी जिन्दगी की सुबह और दोपहर के जमाने की होली की याद करते हैं, तो बरबस ही उनके चेहरे का रंग इन्द्रधनुषी हो जाता है। इसी के साथ आज की होली और पुराने जमाने की होली के बीच तुलना भी सहज ही हो जाती है।
उमर दराज लोगों की मानें तो आज भी होली के पहले से गुजिया बनने की तैयारी आरंभ हो जाती है। होली के लिये गुलाल और रंग का इंतजाम कर लिया जाता है। होली का पर्व आज से दो-तीन दशकों पहले तक जिस परंपरागत उल्लास के साथ मनाया जाता था आज वह देखने को कम ही मिलता है।
प्रौढ़ हो रही पीढ़ी का मानना है कि आज के समय में होली का त्यौहार महज रस्म अदायगी का ही रह गया है। आज के समय में होली पर फूहड़ता ज्यादा देखने को मिल रही है। इसके अलावा नशे की गिरफ्त में फंस चुकी युवा पीढ़ी के द्वारा भी इस पर्व को उत्साह के साथ मनाने का जतन नहीं किया जाता है।
लोग याद करते हैं कि होली के पर्व पर धुरैड़ी के दिन युवाओं के द्वारा टोलियां बनाकर एक दूसरे के घर जाकर रंग गुलाल लगाकर एक दूसरे को होली की बधाईयां दी जाती थीं। अब तो लोग अपने बच्चों को घरों से इसलिये नहीं निकलने देते हैं कि कहीं कोई दुर्घटना न घट जाये।
बुजुर्ग लोग याद करते हैं कि होली के एक पखवाड़े पहले से ही उनके द्वारा पलाश के फूलों को तोड़कर उनसे प्राकृतिक रंग तैयार कर होली खेली जाती थी। आज के समय में कैमिकल युक्त रंगों के चलने से लोगों की त्वचा पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।
वहीं ग्रहणियों की मानें तो होली के एक पखवाड़े पहले से ही घरों में पकवानों की सुगंध आना आरंभ हो जाती थी। अब बाजार में मिलने वाले मिलावटी पकवानों पर बढ़ी निर्भरता के चलते घरों पर शुद्धता के साथ तैयार होने वाले पकवान बनने की परंपरा मानो समाप्त ही हो चुकी है।
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