सियासी अवसाद के कुहासे में नरेंद्र भाई

 

 

(पंकज शर्मा)

अब से कुछ दिन बाद नरेंद्र भाई मोदी रायसीना पहाड़ी स्थित अपने प्रधानमंत्री कार्यालय की सीढ़ियां उतर रहे होंगे। पुलवामा की घटना के बाद देश में लाए गए राष्ट्रभक्ति के प्रायोजित ज्वार के बावजूद, मुझे नहीं लगता कि, जुगल-जोड़ी की भारतीय जनता पार्टी ख़ुद – ब – ख़ुद 200 का आंकड़ा छू पाएगी। ऐसे में अपने सहयोगियों के बूते तक़रीबन 80 सांसदों का इंतज़ाम कर पाना पराक्रमी नरेंद्र भाई और बलशाली अमित भाई शाह के लिए भी नामुमकिन होगा।

ज़मीन पर तो यही लिखा है कि कांग्रेस की हालत कुछ भी सही, वह 135 का आंकड़ा छूने जा रही है। विपक्ष की भरभराहट कैसी ही सही, उसकी झोली में डेढ़ सौ से कम सांसद नहीं होंगे। सो, मई के चौथे गुरुवार को जब चुनाव नतीजे आएंगे तो नवग्रहों की समीकरण भाजपा के ध्वज की जगह विपक्ष के ध्वज-युग्म को सत्तासीन कर रहा होगा। नरेंद्र भाई तो नरेंद्र भाई, मैं ने भी सवा दो साल पहले तक कभी यह नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी ऐसे बेआबरू हो कर उन्हें हुकूमत के कूचे से बाहर जाना पड़ेगा।

मुझे लगता है कि चुनाव नतीजों के बाद नरेंद्र भाई ख़ुद ही सरकार बनाने का दावा पेश करने से इनकार कर देंगे। वे यह दांव दो कारणों से खेलेंगे। पौने दो सौ के आसपास लटकी भाजपा की सरकार किसी और की अगुआई में बने, यह नरेंद्र भाई को कैसे रास आएगा? वे जानते हैं कि उनके सहयोगी दल उनके बजाय किसी और को गद्दीनशीन करने की जुगत लगाएंगे। वे यह भी जानते हैं कि भाजपा के भीतर भी कुनमुनाहट होगी। इसकी काट उस मट्ठे से ही हो सकती है, जो सिहासन की जड़ ही सुखा दे।

तो नरेंद्र भाई और उनकी हर बात पर हुंकारा भरने वाले भाजपा-अध्यक्ष करेंगे यह कि देश को याद दिलाएंगे कि भाजपा औरों से अलग है; उसके राजनीतिक मूल्य नैतिकता की चाशनी में पगे हैं; ठीक है कि भाजपा सबसे बड़े राजनीतिक दल के तौर पर उभर कर आई है और सरकार बनाने का दावा करने का पहला हक़ उसका है, मगर यह जनादेश मूलतः विपक्षी गठबंधन की सरकार के लिए है; हम चूंकि सत्तालोलुप नहीं हैं, सो, अपने को इस दौड़ से अलग करते हैं।

तो न रहेगा बांस और न बजेगी किसी और की बांसुरी। जब तक नरेंद्र भाई हैं, किसी नितिन गड़करी, किसी राजनाथ सिंह या किसी क ख ग के होंठ बांसुरी को क्यों चूमें? अपना यह धोबियापाट आजमाने के लिए नरेंद्र भाई को यह उम्मीद भी प्रेरित करेगी कि विपक्षी गठबंधन की सरकार को अपनी हर तरह की विशेषज्ञता से वे डेढ़-दो साल में गिरा डालेंगे और फिर अकेले ही तीन सौ सीटों के साथ साउथ ब्लॉक पर चढ़ाई कर देंगे।

यह परिकल्पना जिन्हें अभी दूर की कौड़ी लग रही है, वे दो महीने बाद इसका हू-ब-हू मंचन देख रहे होंगे। भाजपा के अपने आप स्पष्ट बहुमत पाने की बात तो अब उसके घनघोर अंध-समर्थक भी नहीं कर रहे हैं। पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक का आकलन है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ सवा दो सौ सीटों के आसपास पहुंचेगी। बाकी के 40-50 सांसद जुटाने की जुगत में अपनी फ़जीहत कराने के बजाय ख़ुद को ऊंचे नैतिक मूल्यों की खूंटी पर टांग लेना भाजपा को ज़्यादा सुहाएगा। डेढ़-दो साल का इतज़ार अभी की कूद-फांद से उसे बेहतर लगेगा।

इतना तो तय हो गया है कि इस बार के चुनाव नतीजों के रथ के पहिए डगमग-डगमग कर रहे हैं। देश को इस बार हिचकोली-सरकार मिलने जा रही है। लेकिन नरेंद्र मोदी की सवारी से परेशान देश की पीठ का बोझ इन गर्मियों में हलका होने भर से ही क्या विपक्ष को चौन से सोने का अधिकार मिल जाना चाहिए? विपक्षी गठबंधन की सरकार चाहे कांग्रेस की अगुआई में बने या किसी क्षेत्रीय दल के नेतृत्व में, असली चुनौती तो सचमुच उसे बनाने और चलाने की ही होगी। हमारी आज की राजनीति में ऐसे कितने नीलकंठ हैं, जो निर्लिप्त भाव से ऐसे किसी भी यज्ञ में अपनी समिधा अर्पित करने की ललक लिए हों?

आदर्श स्थिति तो यही होती कि विपक्ष का चुनाव-पूर्व महागठबंधन बन जाता। नरेंद्र भाई से भारत को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा से बंधे तमाम दिग्गज जब पहले ही छिटके-छिटके फिर रहे हैं तो पता नहीं बाद में वे क्या करेंगे? जब सिर पर लटकी तलवार के ख़ौफ़ से भी उनके पल्लू साथ नहीं बंधे तो मतदान के जनवासे में जा रहे बाराती आगे की सप्तपदी संपन्न होने का भरोसा कैसे करें? पांच साल पहले सत्ता के सेहरे के पीछे से झांकते नरेंद्र भाई के चेहरे पर लट्टू भारत में 69 प्रतिशत मतदाता उन्हें नकार कर चले आए थे। इस बार तो तीन चौथाई से ज़्यादा मतदाता नरेंद्र भाई द्वारा देश को दिखाए ठेंगे के जवाब में उन्हें अपना ठेंगा दिखाने को तैयार बैठे हैं। ईश्वर करे कि विपक्षी एकजुटता की कमी का साया उनके क़दमों की चाल सुस्त न करे!

मैं ने दो साल पहले लिखा था कि आज जिस भाजपा को सियासी लड़ाई के आयाम नरेंद्र मोदी-बनाम-राहुल गांधी करने में मज़ा आ रहा है, 2019 आते-आते वह इस विचार से भी थरथराने लगेगी। तब पूरी कोशिश होगी कि यह लड़ाई मोदी-राहुल के बीच न हो। वही हुआ है। पिछले डेढ़ साल में राहुल गांधी की त्वरा, उनके तेवर और उनकी तैयारी ने भारत का सियासी भूगोल बदल दिया है। इसलिए भाजपा ने पिछले कुछ महीनों में चुनावी युद्ध को मोदी-बनाम-बाकी सब के कुहासे में लपेट दिया है। अगर सीधे राहुल सामने होते तो लोगों के मन में स्पष्टता ज़्यादा होती। बाकी सब के गड्डमड्डपन का बिंदु भाजपा को अधिक फ़ायदेमंद लग रहा है।

इसलिए समूचे विपक्ष की रणनीति इन दो महीनों में चुनावी दृश्य को लगातार और ज़्यादा स्पष्ट बनाने की होनी चाहिए। जितना ही यह होगा, उतना ही नरेंद्र भाई हांफेंगे। उनका मुलम्मा उतर चुका है। वे राजनीतिक अवसाद के दौर से गुज़र रहे हैं। उनके मन में सियासी क्षोभ के बादल घुमड़ रहे हैं। वे राजनीतिक किनाराकशी के हमले से जूझ रहे हैं। उनके भीतर का भय और असुरक्षा पूरी तरह सतह पर दिखाई देने लगे हैं। अगर इतने झंझावातों से घिरे नरेंद्र भाई के सामने भी आज का विपक्ष ताल नहीं ठोक पाया तो अब से पांच साल बाद ही उसके मरघिल्लेपन को किसका सहारा मिल जाएगा? नरेंद्र मोदी इससे कमज़ोर अब कभी नहीं होने वाले।

इस वक़्त जनमानस मोदी के साथ नहीं है। वह मोदी से दो-दो हाथ करने पर उतारू है। लेकिन अगर विपक्ष अपने को इतने खानों में बांट कर रखेगा तो लोकतंत्र की दुर्दशा के पाप का भागी क्या कोई और होगा? इसलिए सयानापन अपनी-अपनी ढपली बजाने में नहीं, एक संयुक्त पक्का राग गाने में है। कितनी ही आलीशान दीवारें उठ जाएं, अगर उनके नीचे नींव का पत्थर नहीं होगा तो वे कितनी देर खड़ी रहेंगी? इसलिए यह समय अतिशय व्यक्तिवादिता के तालाब में डूब मरने का नहीं, सामूहिकता की उफनती नदी में बहने का है। वरना पतनाले के फिर वहीं गिरने का इंतज़ार कीजिए और अपने कर्म-फल पर बाद में विलाप मत कीजिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं.)

(साई फीचर्स)