लड़ती हुई लड़कियों में दिखती है बचे लोकतंत्र की उम्मीद

 

(अनीता मिश्रा) 

नब्बे के दशक में ग्लोबल सौंदर्य प्रतियोगिताओं में एक के बाद एक भारत की लड़कियों ने बाजी मारी तो लगा कि हमारा समाज बदल रहा है। लड़कियां अब ज्यादा मुखर होकर आगे आएंगी। तब तक हमारे यहां आयरन लेडी छवि वाली महिला इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रह चुकी थीं। भारत ही नहीं, समूचा एशिया कम से कम इस मामले में अमेरिका से आगे था कि वहां कोई महिला राष्ट्रपति नहीं निर्वाचित हुई थी। लेकिन इसके बाद भी हमारे यहां स्त्री की स्थिति अमेरिका या यूरोप की औरतों से बदतर ही चली आ रही है। समाज में स्त्रियों की स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। सौंदर्य प्रतियोगिताएं महज बाजार का शगल साबित हुईं। इनसे स्त्री का वस्तुकरण ही हुआ। नारीवादी लेखिका नाओमी वुल्फ ने इसे मर्दवादी पूंजीवादी मिथ कहा। भारत में नारीवादी आंदोलन के लिए कहा जाता है कि यह लिपस्टिक और हाई हील से आगे नहीं बढ़ा है।

भारत में महिलाएं व्यक्तिगत रूप से हमेशा से विद्रोह करती आई हैं, पर सामाजिक समस्याओं के लिए ज्यादातर आंदोलन पुरुषों ने ही चलाए हैं। स्त्रियों का सबसे पहला संगठन कोई पांच सौ ईसा पूर्व बौद्ध धर्म में शामिल होने के लिए बना था, जब भिक्षुणियों ने मिलकर भिक्षुणी संघ बनाया था। बाद में इन्हीं भिक्षुणियों ने पितृसत्ता से घुटन और आजादी के गीत थेरीगाथा में दर्ज किए। बाद की विद्रोहिणी स्त्रियों में अक्क महादेवी, सहजोबाई, जनाबाई और मीराबाई की चर्चा होती है। वीरांगनाओं में रजिया सुल्तान, झलकारी बाई, रानी झांसी और बेगम हजरत महल चर्चित नाम हैं। सामाजिक बदलाव के लिए जिन महिलाओं ने अभूतपूर्व कार्य किया उनमें सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, पंडिता रमाबाई, फ्रांसिना सोराबजी और रमाबाई रानाडे अहम नाम हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी के आगमन ने बहुत सारी स्त्रियों को आजादी के आंदोलन से जोड़ा। घरेलू स्त्रियां भी आंदोलन में सक्रिय हुईं और नमक आंदोलन में कई स्त्रियां जेल तक गईं।

आज़ादी के बाद हिंदू कोड बिल महिलाओं की स्थिति में बड़ा बदलाव लेकर आया। इस दौरान महिलाओं के अपने अधिकारों को लेकर बड़े आंदोलन तो नहीं हुए लेकिन महिलाएं तमाम आदिवासी आंदोलन और चिपको जैसे पर्यावरण आंदोलनों से जुड़ी रहीं। सत्तर के दशक में खासकर उत्तराखंड में उन्होंने शराबबंदी के मुद्दे पर जमकर आंदोलन किया। इसी दौरान मुंबई में मृणाल गोरे ने बढ़ती कीमतों के खिलाफ महिला मोर्चा गठित करके आंदोलन शुरू किया जिससे बीसियों हजार महिलाएं जुड़ीं। सत्तर-अस्सी के दशक में जब दुनिया भर में नारीवाद की नई व्याख्याएं की जा रही थीं, प्रगतिवादी महिला संगठन सहित अनेक ऐसे संगठन बने, जो खासकर महिलाओं के मुद्दे पर आंदोलन करते थे। सेवा जैसे संगठनों ने स्त्रियों को स्वावलंबी बनाने के काम किए। अस्सी के दशक में ही चेतना मंच जैसे कई संगठन बने जिन्होंने दहेज के खिलाफ नुक्कड़ नाटक और प्रदर्शन किए।

महाराष्ट्र में मथुरा नाम की लड़की से पुलिस स्टेशन में बलात्कार हुआ तो सारे अपराधी कोर्ट की इस टिप्पणी के साथ रिहा हो गए कि उसके कई प्रेमी हैं इसलिए वह एक चालू लड़की है। इस फैसले के खिलाफ कई आंदोलन हुए। राजस्थान में भंवरी देवी के साथ भी ऐसा ही हुआ जब बलात्कारी इस दलील पर रिहा कर दिए गए कि वे उच्च वर्ग के हैं और निम्न वर्ग की स्त्री के साथ ऐसा कर ही नहीं सकते हैं। इस फैसले का विरोध देशभर के नारी संगठनों ने किया। भारतीय स्त्रियों को सबसे ज्यादा झकझोरने वाली घटना 2012 में दिल्ली में हुई। एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ बहुत ही हिंसक तरीके से हुए बलात्कार ने सबको गुस्से से भर दिया। देशभर में हुए आंदोलनों में बलात्कारी के लिए कड़ी सजा के साथ फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित करने की मांग भी हुई। हर शहर में लड़कियों से जैसे बन पड़ा, उन्होंने बढ़-चढ़कर अपने गुस्से का इज़हार निर्भया आंदोलन में किया।

इसके बाद अलग-अलग समस्याओं को लेकर कई तात्कालिक आंदोलन हुए जिनमें एक ऐसिड पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल ने एसिड की खुलेआम बिक्री रोकने के लिए मुहिम चलाई और कोर्ट से इसपर रोक लगवाने में सफलता पाई। उनके जीवन पर फिल्म भी बन गई है। जीएसटी में सेनेटरी पैड को विलासिता का सामान माने जाने के विरोध में लड़कियों ने लहू का लगान नाम से सोशल मीडिया पर एक अभियान शुरू किया था। एक और मुहिम मी टू की थी जो सोशल मीडिया पर छाई रही। इसमें दुनिया भर की लड़कियों और उम्रदार स्त्रियों ने अपने साथ जीवन के किसी भी मोड़ पर हुए यौन उत्पीड़न पर खुलकर बात की। उत्तर प्रदेश का गुलाब गैंग भी महिलाओं के साथ हुई घरेलू हिंसा के खिलाफ और दिल्ली का पिंजरा तोड़ समूह हॉस्टल में सिर्फ लड़कियों पर लगाए जा रहे नियमों के विरोध में सक्रिय रहा। हाल में एनआरसी और सीएए को लेकर जो आंदोलन हो रहे हैं, उनमें लड़कियों की बड़ी भूमिका है। वे न केवल आंदोलन में शामिल हुईं बल्कि बहुत जगह इसे लीड किया। जेंडर के फर्क को मिटाते हुए उन्होंने पुलिस की लाठियां खाईं, जेल भी गईं।

इतनी जागरूकता के बाद भी महिलाओं को लेकर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य काफी निराशाजनक है। इसकी वजह है संसद में महिलाओं का कम होना। जब तक सत्ता में महिलाओं की भागीदारी नहीं होगी तब तक उनके जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आने वाला। इसलिए महिला आरक्षण को लेकर एक बड़े आंदोलन की जरूरत है। इस विषय पर राजनीतिक दल आपस में ही विवाद करके मामले को ठंडा कर देते हैं। वर्तमान लोकसभा में महिलाएं लगभग चौदह प्रतिशत हैं। ऐसे में जरूरी है कि तैंतीस प्रतिशत महिला आरक्षण को लेकर बड़ा आंदोलन किया जाए। इतना तय है कि इन दिनों जिस तरह लड़कियां आंदोलनों में बेखौफ होकर हिस्सा ले रहीं हैं वह तात्कालिक उबाल भर नहीं है।

(साई फीचर्स)