(अंशुल त्रिवेदी)
एमआईएम के प्रवक्ता और पूर्व विधायक वारिस पठान के बयान से सारे मीडिया में खलबली मची हुई है। पठान ने एक जनसभा में यह कह दिया की भले ही मुसलमानों की जनसंख्या केवल 15 प्रतिशत क्यों ना हो यदि वे एक हो जाएँ तो वे 100 करोड़ हिन्दुओं पर भारी पड़ेंगे। ज़ाहिर सी बात है की वीडियो देखते ही देखते वायरल हो गया। बहुत से आम हिन्दू और मुसलामान इस बयान से व्यथित हो गए और उन्होंने इस बयान की निंदा करते हुए ट्विटर पर वारिस पठान पागल है ट्रेंड कराया।
दरअसल वारिस पठान पागल नहीं हैं – वे मुसलमान राजनीति के एक धड़े का प्रतिनिधित्व करते हैं। वो इसलिए की पठान नादान नहीं हैं वे एक निर्वाचित विधायक रह चुके हैं इसलिए शरजील इमाम की तरह राजनीति की ज़मीनी हक़ीक़तों से अनभिज्ञ होने और भाजपा की प्रोपेगंडा मशीन का शिकार होने का तर्क भी इस केस में नहीं दिया जा सकता। और हमें याद रखना चाहिए की यह पहली बार नहीं है कि इस तरह की विववादस्पद बात इस पार्टी के लीडरों के द्वारा कही गयी है। इसके पहले भी एमआईएम के सुप्रीमो के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी पंद्रह मिनट के लिए पुलिस हटाने के अपने भड़काऊ भाषण के चलते सुर्खियों में रहे थे।नागरिकता क़ानून के विरोध में छिड़े देशव्यापी आंदोलन के परिपेक्ष्य में इस राजनीति को गंभीरता से समझने की ज़रुरत और बढ़ जाती है। दिल्ली चुनाव में भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों के बयानों से लेकर पठान और अकबरुद्दीन के बयानों तक – क्यों नेता ऐसे भाषण देते हैं? और क्यों उस पर उनके सामने इक्कट्ठी हुई भीड़ ताली बजाती है?
वह इसलिए क्योंकि दुर्भाग्य से राजनीति के चलते हिन्दू और मुसलामानों के रिश्तों में हमेशा तनाव और हिंसा की भूमिका रही है। जामिया से लेकर उत्तर प्रदेश तक हाल में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान तो शासन के द्वारा प्रदर्शनकारियों पर हिंसा और ज्यादती के तथ्य भी सामने आ रहे हैं। गौरतलब है की ऐसी हिंसा का सामना जाट आंदोलन के प्रदर्शनकारियों या शम्भुलाल रेगर के पक्ष में उदयपुर सेशन कोर्ट के ऊपर तिरंगे की जगह भगवा ध्वज लहराने वालों को नहीं करनी पड़ी थी।ऐसे हालातों में भीड़ के सामने भाषण देकर मर्द बनना एक नेता के लिए सबसे आसान काम है। उससे वह बहुत तालियां बटोरता है और अल्पसंख्यक समुदाय को ताक़तवर होने का मिथ्याभास दिलाता है। लेकिन ये सच्चाई से मीलों दूर है।
दरअसल पठान और अकबरुद्दीन ओवैसी हिंदुत्ववादी भीड़ के सामने एक इस्लामिस्ट भीड़ खड़ी कर रहे हैं। इससे कई इलाक़ों में उनकी पार्टी की चंद सीटों में इज़ाफ़ा ज़रूर होगा और उनकी तथाकथित मरदाना छवि और चमकेगी भी लेकिन करोड़ों आम हिन्दू और मुसलमान हिंसा के कुचक्र में झोंक दिए जाएंगे। उस हिंसा में बहे खून से पुनः भीड़ तैयार की जायेगी। ज़ख्म हरे रखे जाएंगे। और फिर कोई नेता अपनी मर्दानगी की नुमाइश करने के लिए ऐसे भाषण देगा।
इन दोनों पक्षों को लगता है कि यह एक दुसरे के खिलाफ हैं जबकि असल में दिन और रात की तरह ये साथ जुड़े हुए हैं। एक के बिन दुसरे की कल्पना नामुमकिन है। इसलिए कोई अचम्भे की बात नहीं है कि जैसे – जैसे उग्र हिंदुत्व की राजनीति मज़बूत हुई है एमआईएम की लोकप्रियता भी बढ़ी है। लेकिन इन दोनों पक्षों में आधारभूत समानता यह है की यह भीड़ के दम पर राजनीति और शासन करते हैं। मुसलमान राजनीति के इस मॉडल से यदि कोई सबसे ज्यादा प्रसन्न होता है तो वह भाजपा है। वह इसलिए क्योंकि एक आम हिन्दू के मन में उसके और मीडिया के ज़रिये बनाई गयी मुसलमान समाज की कट्टर और हिंसक छवि को ऐसे भाषण सुदृढ़ करते हैं। और तो और 85 बनाम 15 की राजनीति असदुद्दीन ओवैसी के दलित – मुसलमान एकता के नारे को भी खोखला साबित कर देता है!
यह बात आम मुसलमान अब समझ रहे हैं। नेताओं की भीड़ बनकर, हिंसा का समर्थन कर के उन्हें कोई फायदा नहीं है। सात दशकों से समीकरणों की राजनीति में कैद मुसलमान भीड़ नहीं नागरिकता की भाषा बोलना चाहता है। उसे पता है की कोई भी मर्द नेता ना ही उसकी और ना उसके हितों की रक्षा कर सकता है। उसकी और उसके हितों की रक्षा सिर्फ भारत के संविधान का राज स्थापित कर और क़ानून व्यवस्था में बदलाव लाकर ही सुनिश्चित किये जा सकते हैं।
यही कारण है की आज करोड़ों मुसलमान अपने राजनीतिक भविष्य को शाहीन बाग़ में देखते हैं। उनके रहनुमा वारिस पठान जैसे मर्द नहीं शाहीन बाग़ की अहिंसावादी महिलाएं हैं। उनका राजनीतिक मूलमंत्र संविधान की हिफाज़त है। उनके हाथ में अम्बेडकर का संविधान और दिल में गाँधी का भारत है और यदि हिंदुत्ववादी राजनीति कहीं कमज़ोर पड़ती है तो वह इन्हीं दोनों के आदर्शों के सामने। वे समझते हैं कि जामा मस्जिद में लहराता एक तिरंगा हज़ारों वारिस पठानों से ज्यादा शक्तिशाली है। वारिस पठान मुसलामानों की राजनीती का अतीत है। शाहीन बाग़ भविष्य। हाँ लेकिन टीवी मीडिया में यह सच्चाई आपको नहीं दिखाई जायेगी।
(साई फीचर्स)