जानिए आखिर बुद्धि विनायक भगवान श्री गणेश ने क्यों लिया था वक्रतुण्ड अवतार . . .
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सनातन धर्मावलंबी जब भी कोई शुभ कार्य करते हैं सबसे पहले उनके द्वारा भगवान श्री गणेश का आव्हान किया जाता है, उनका पूजन किया जाता है। भगवान श्री गणेश जी निराकार दिव्यता हैं जो भक्त के उपकार हेतु एक अलौकिक आकार में स्थापित हैं। हिंदू पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार, भगवान श्री गणेश बहुत दयालु हैं और भक्तों को सदैव आर्शीवाद देते हैं। भगवान श्री गणेश को देवाधिदेव महादेव भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र माना जाता है।
भगवान गणेश के नाम का शाब्दिक अर्थ जानते हैं। गण का अर्थ है समूह। यह पूरी सृष्टि परमाणुओं और अलग अलग ऊर्जाओं का समूह है। यदि कोई सर्वाेच्च नियम इस पूरी सृष्टि के भिन्न-भिन्न संस्थाओं के समूह पर शासन नहीं कर रहा होता तो इसमें बहुत उथल-पुथल हो जाती। इन सभी परमाणुओं और ऊर्जाओं के समूह के स्वामी हैं गणेश जी। वे ही वह सर्वाेच्च चेतना हैं जो सर्वव्यापी है और इस सृष्टि में एक व्यवस्था स्थापित करती है।
आदि शंकराचार्य जी ने गणेश जी के सार का बहुत ही सुंदरता से गणेश स्तोत्र में विवरण किया है। हालांकि, गणेश जी की पूजा हाथी के सिर वाले भगवान के रूप में होती है, लेकिन माना जाता है कि यह आकार या स्वरुप वास्तव में उस निराकार, परब्रह्म रूप को प्रकट करता है।
अगर आप बुद्धि के दाता भगवान गणेश की अराधना करते हैं और अगर आप एकदंत भगवान गणेश के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय गणेश देवा लिखना न भूलिए।
भगवान श्री गणेश जी अजं निर्विकल्पं निराकारमेकम हैं। इसका अर्थ होता है कि गणेश जी अजं (अजन्मे) हैं, निर्विकल्प (बिना किसी गुण के) हैं, निराकार (बिना किसी आकार के) हैं और वे उस चेतना के प्रतीक हैं, जो सर्वव्यापी है। भगवान श्री गणेश जी वही ऊर्जा हैं जो इस सृष्टि का कारण है। यह वही ऊर्जा है, जिससे सब कुछ प्रकट होता है और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है।
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आईए भगवान श्री गणेश जी के आठ अवतारों में से पहले अवितार वक्रतुण्ड के संबंध में जानते हैं विस्तार से कि गणेश भगवान ने क्यों लिया था वक्रतुंड अवतार . . .
गणेश जी के 8 प्रमुख अवतारों में प्रथम वक्रतुंडा अवतार माना जाता है। यह अवतार ब्रम्हा को धारण करने वाला है। शास्त्रों के अनुसार गणेश जी ने वक्रतुंड रूप में अवतार राक्षस मत्सरासुर के दमन के लिए लिया था। मत्सरासुर परम शिव भक्त था और उसने उनकी उपासना करके अभय होने का वरदान प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात देवगुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर उसने देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया। तब सारे देवता शिव जी की शरण में पहुंचे। जिस पर शंकर जी ने उनसे कहा कि वे गणेश जी का आव्हान करें। देवताओं द्वारा आव्हान करने पर गणपति वक्रतुंड अवतार लेकर प्रकट हुए। इसी वक्रतुंड अवतार ने मत्सरासुर को उसके सहयोगियों समेत पराजित किया। बताते हैं कि बाद में मत्सरासुर गणपति का परम भक्त हो गया था।
आईए अब बताते हैं भगवान गणेश जी के वक्रतुंड अवतार की कथा के बारे में . . .
मुद्गल पुराण के अनुसार भगवान् गणेश के अनेकों अवतार हैं, जिनमें आठ अवतार प्रमुख हैं। पहला अवतार भगवान् वक्रतुंड का है। ऐसी कथा है कि देवराज इन्द्र के प्रमाद से मत्सरासुर का जन्म हुआ। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से भगवान् शिव के पंचाक्षरी मन्त्र ओम नमः शिवाय की दीक्षा प्राप्त कर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। शंकर जी ने प्रसन्न होकर उसे अभय होने का वरदान दिया।
कथा के अनुसार शास्त्रों के अनुसार, राक्षस मत्सरासुर के दमन के लिए गणेश जी ने वक्रतुण्ड का अवतार लिया था। मत्सरासुर शिव जी का परम भक्त था। राक्षस मत्सरासुर को शिव जी से अभय होने का वरदान प्राप्त था। यह वरदान पाने के बाद उसने सभी देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया था। शास्त्रों के अनुसार वह अवतार ब्रम्हा को धारण करना था। एक पौराणिक कथा के अनुसार, देवराज इन्द्र के प्रमाद से ही मत्सरासुर का जन्म हुआ था। मत्सरासुर ने असुर गुरु शुक्राचार्य की प्रेरणा और पंचाक्षरी मंत्र ओम नमः शिवाय का जप किया और इसके फलस्वरुप शिवजी ने इसे वरदान दिया। इसी वरदान के बल पर इसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। सिर्फ तीनों लोकों पर ही नहीं बल्कि कैलाश और वैकुंठ पर भी इस राक्षस ने अपना कब्जा जमा लिया था। यह सब उसने असुर गुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर किया था। राक्षस मत्सरासुर से निजात पाने के लिए सभी देवगण शिव जी के पास पहुंचे। शिव जी ने उनसे गणेश जी का आव्हान करने के लिए कहा। सभी देवताओं ने भगवान दत्तात्रेय के साथ मिलकर वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मंत्र का आव्हान किया। इसी मंत्र के प्रभाव से पशुपतिनाथ ने गणेश जी के वक्रतुण्ड अवतार को प्रकट किया। सभी देवताओं ने वक्रतुंड अवतार से मत्सरासुर से उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए कहा।
भगवान् वक्रतुंड ने अपने असंख्य गणों के साथ मत्सरासुर के नगर को चारों तरफ़ से घेर लिया। दोनों ओर से भयंकर युद्ध छिड़ गया। पाँच दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। मत्सरासुर के सुन्दरप्रिय एवं विषयप्रिय नामक दो पुत्र थे। वक्रतुण्ड के दो गणों ने उन्हें मार डाला। पुत्र-वध से व्याकुल मत्सरासुर रणभूमि में उपस्थित हुआ। वहाँ उसने भगवान वक्रतुंड को तमाम अपशब्द कहे। भगवान वक्रतुण्ड ने प्रभावशाली स्वर में कहा, यदि तुझे प्राण प्रिय हैं तो शस्त्र रखकर मेरी शरण में आ जा। नहीं तो निश्चित मारा जाएगा।
वक्रतुण्ड के भयानक रूप को देखकर मत्सरासुर अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसकी सारी शक्ति क्षीण हो गयी। भय के मारे वह काँपने लगा तथा विनयपूर्वक वक्रतुंड की स्तुति करने लगा। उसकी प्रार्थना से सन्तुष्ट होकर दयामय वक्रतुण्ड ने उसे अभय प्रदान करते हुए अपनी भक्ति का वरदान दिया तथा शान्त जीवन बिताने के लिये पाताल जाने का आदेश दिया। मत्सरासुर से निश्चिन्त होकर देवगण वक्रतुंड की स्तुति करने लगे। देवताओं को स्वतन्त्र कर प्रभु वक्रतुण्ड ने उन्हें भी अपनी भक्ति प्रदान की ।
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(साई फीचर्स)