छिलकों की सजावट का अमृत महोत्सव

 

 

(पंकज शर्मा)

जिन्हें भारत माता की नहीं, किसी और की भक्ति करनी है, वे नहीं मानेंगे, लेकिन यह असलियत अब सतह पर आती जा रही है कि भारत भीतर से खोखला होता जा रहा है। अर्थव्यवस्था चौपट होती जा रही है। बेरोज़गारी बेइंतिहा बढ़ती जा रही है। वाहन उद्योग से लेकर कपड़ा उद्योग तक सब हाहाकारी – मुसीबत में फंस गए हैं। विमानन कंपनियां बंद हो रही हैं। बिस्कुट बनाने वाली कंपनियां तक अपने बीसियों हज़ार कर्मचारियों को निकालने पर मजबूर हो गई हैं। खुदरा व्यापारी बेहाल हैं। महंगाई का बेताल आम आदमी के कंधे से उतरने को तैयार नहीं है। बैंकिंग व्यवस्था इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। निर्यात नीचे लुढ़क रहा है। सरकारों के रेलवे और सड़क निर्माण जैसे महकमे काम कराने के बाद भी ठेकेदारों को भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। कर – अधिकारियों के आतंक से कारोबारी बिलबिला रहे हैं। सामाजिक खदबदाहट बढ़ती जा रही है। जम्मू – कष्मीर – लद्दाख और पूर्वाेत्तर के आसमान में कोहरा घना होता जा रहा है।

ऐसे में भी जिन्हें खर्रांटेदार नींद आ रही है, उनको सजदा करने का मन होता है। भीतर की इस कदर बीमार काया को ऊपर के सुनहरी अंगरखों से स्वस्थ मानने के भुलावे में रहने वालों की हिम्मत पर मर – मिटने को जी चाहता है। रंग – बिरंगे – चमकीले मलबूस से सजे खोखले ज़िस्म का ऐसा अभिनंदन समारोह देश ने पहले कभी नहीं देखा था। फलों की दूकान पर छिलकों की सजावट का ऐसा अमृत – महोत्सव भारत ने पहले कभी नहीं मनाया था। मगर आज हमारे पास एक पराक्रमी प्रधानमंत्री हैं, जिनके षब्दों का वजन, उन्हें बिना तोले ही, मानने को हम शापित हैं। उनके कहे को काटने का साहस वे ही कर सकते हैं, अपना शीष चढ़ा देने की सनक जिन पर सवार हो गई हो। ऐसे सनकियों की क़तार में शामिल हो कर कौन अपना घर – बार दांव पर लगाए?

सो, मान लीजिए कि भारत विश्व – गुरू बस बनने ही वाला है; कि हमारी अर्थव्यवस्था इतनी तेज़ी से तरक़्की कर रही है कि चीन – अमेरिका सब पीछे छूटने वाले हैं; कि लोकसभा का अगला चुनाव आते – आते भारत पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का मालिक बन जाएगा; कि चंद्रयान के चंद्रमा की सतह छूते ही स्वर्ग हमारी धरती पर उतर आएगा; कि अमेरिका के ह्यूस्टन में आने वाले 22 सितंबर को हाउडी मोदी का आयोजन होते ही हमारी छतों पर रखी खीर में शरद – पूर्णिमा का वह अमृत टपाटप बरस जाएगा, जो भारत की दैहिक, दैविक, भौतिक काया को एकदम निरोगी कर देगा। नरेंद्र भाई मोदी ने 2014 के अप्रैल – मई में हम से पांच साल मांगे थे। कहा था, अच्छे दिन आएंगे। हमने उन्हें पांच साल दिए। फिर 2016 के नवंबर में उन्होंने हम से पचास दिन मांगे। कहा कि अगर 30 दिसंबर के बाद मेरी कोई कमी रह जाए, कोई मेरी ग़लती निकल जाए, आप जिस चौराहे पर मुझे खड़ा करेंगे, मैं खड़ा हो कर, देश जो सज़ा मुझे देगा, भुगतने को तैयार हूं। हमने उन्हें पचास क्या, सारे दिन दे दिए। पांच साल पूरे हुए तो अगले पांच साल के लिए नरेंद्र भाई पहले से भी ज़्यादा बहुमत अपने कुर्ते की जेब में डाल कर संसद में जा बैठे। तीन साल पहले जब अर्थशास्त्रियों ने कहा था कि नोट – बंदी की महा – भूल देश की अर्थव्यवस्था को ले बैठेगी तो हमने भारत माता की जय के नारे लगा कर उनकी ज़ुबानें बंद कर दीं। आज जब बड़े उद्योगपतियों से ले कर छोटे कारोबारियों तक सब मुमुक्षु – भवन की चारपाई पर पड़ी अर्थव्यवस्था के आसपास बैठ कर आंसू बहा रहे हैं तो हम फिर वंदे मातरम के नारे लगा कर उनका विलाप दबाने में लगे हैं।

मगर यह सब कब तक दबेगा? आधी रोटी खा कर भी अपने तिरंगे की शान बनाए रखने में हमने कब कोताही की? यह स्वभाव तो हमारी जन्म – घुट्टी में है। लेकिन उनका क्या, जो तिरंगे की आड़ में अपने ध्वज पर चस्पा मक़सद पूरे करने की रोटियां सेंक रहे हैं? लालकिले से आज़ादी की इस सालगिरह पर नरेंद्र भाई ने ठीक कहा कि अब हम संकल्प से सिद्धि की तरफ़ बढ़ रहे हैं। वे सचमुच अपने संकल्प के उद्यापन के नज़दीक पहुंचते जा रहे हैं। उन्होंने जो सोच कर हस्तिनापुर पर चढ़ाई की थी, उसका दो तिहाई, या शायद तीन चौथाई, वे हासिल कर चुके हैं। उनकी इस आपाधापी में देश ने क्या हासिल किया, उनकी बला से! उनकी इस मारामारी में भारत के बुनियादी संकल्पों पर क्या बीती, उनके ठेंगे पर!

नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह के मोषा – युग की एक ही मौलिक खोज है। वह खोज यह है कि भारत का सम्राट दसों दिशाओं से अपनी जय – जयकार सुनना चाहता है। वह लालकिले से कहता तो है कि मैं भी आप ही की तरह इस देश का एक बालक हूं, मगर दरअसल उसे एक भी ऐसे बालक की मौजूदगी पसंद नहीं है, जो, अपनी मासूमियत की वज़ह से, नतीजों की परवाह किए बिना, एकाएक कह दे कि सम्राट के बदन पर कपड़े नहीं हैं। सम्राट को तो उस ऊंचाई तक पहुंचना है, जहां आज तक कोई नहीं पहुंच पाया। मगर सम्राट को यह अंदाज़ ही नहीं है कि गहराई के बिना ऊंचाई तक पहुंचने को लालायित मन चित्रगुप्त के खाते में क्या – क्या दर्ज़ करा रहा है?

नरेंद्र भाई को रोके भी तो कौन रोके? उनकी सभा में वरिष्ठ हैं नहीं। उनकी टोली के अर्थवान विद्वत – जन अपनी ज़ुबानें दांतों में दबाए बैठे हैं। वे हमारे – आपके सामने तो कुनमुनाते हैं, मगर नरेंद्र भाई के सामने इस भय से नहीं बोलते कि कहीं दीवार में चुनवा देने का फ़रमान न ज़ारी हो जाए। अपने राजनीतिक विपक्ष को नरेंद्र भाई ऐसे लील गए हैं कि उसकी सिट्टी – पिट्टी ग़ुम है। पहले तो नरेंद्र भाई को किसी की सुनने की आदत ही नहीं है और अगर वे थोड़ा – बहुत सुनने को मजबूर भी हो जाएं तो सुनाने वाले कहां हैं? विपक्ष है कि ठीक से सुनाने के बजाय मिमिया रहा है।

हम सभी ने देखा कि नरेंद्र भाई ने तो अपनी जीत का ऐलान 2014 से भी बारह बरस पहले तब कर दिया था, जब उन्होंने तब के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की बगल में बैठ कर उनकी बात काटी थी और कहा था कि मैं राज – धर्म का ही पालन कर रहा हूं। मई – 2014 की जीत तो नरेंद्र भाई की औपचारिक जीत थी। उन्होंने तो अपनी जीत का नगाड़ा बहुत पहले बजा दिया था। हमारे धर्म – ग्रंथ कहते हैं कि जो अपनी जीत या हार बहुत जल्दी घोषित कर देते हैं, वे आत्म – विनाश की तरफ़ कूच कर देते हैं। क्या आपको लगता है कि जैसे नरेंद्र भाई ने अपनी जीत बहुत जल्दी घोषित कर दी है, वैसे ही राहुल गांधी ने भी अपनी हार बहुत जल्दी घोषित कर डाली? अगर ऐसा है तो हमारे लिए यह देखना अभी बाकी है कि दोनों अपनी – अपनी राह में ख़ुद के बिछाए कंटक बुहारते हैं या नहीं? अगर नरेंद्र भाई भारत के विश्व – शक्ति बन जाने की विजयश्री पांच साल से अपने गले में डाल कर घूमने की ग़लती अब भी नहीं सुधारते है तो वे जानें! राहुल गांधी भी अगर नीरांजना नदी के तट पर बैठ कर बुद्ध – साधना करने की ज़िद से बाज़ नहीं आना चाहते हैं तो वे भी अपनी जानें! मैं तो इतना जानता हूं कि भारत भीतर से पोला हो रहा है। (लेखक न्यूज़ – व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

(साई फीचर्स)