सीसीडी, मिलन स्थल और टॉयलेट!

 

 

(विवेक सक्सेना)

बेंगलुरू के अखबारों में पिछले कुछ दिनों से कैफे कॉफी डे के मालिक वीजी सिद्धार्थ की आत्महत्या का मुद्दा छाया हुआ है। यहां के अखबारों में 2-2 पन्ने उनसे जुड़ी खबरों से भरे हुए हैं। जिनमें विस्तार से सिद्धार्थ व उसकी कंपनी के बारे में खबरे हैं। तमाम खबरें पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा की सीसीडी की सफलता का एक बड़ा कारण वहां के टायलेट थे व दाम थे जोकि वहां आने वाले युवा लड़के-लड़कियों के लिए बहुत अच्छे मिलन स्थहल साबित हुए।

हमारे देश में चाहे कोई-सा भी युग रहा हो युवा जोड़ो के लिए मिलने का स्थल ढूंढ़ना बहुत बड़ी समस्या रही है। कुछ समय पहले भाजपा के वरिष्ठ वयोवृद्ध नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने एक मजेदार किस्सा सुनाया था। उन्होंने बताया कि मैंने अपनी सांसद निधि से यहां के पार्काे में हाई मास्टर बत्तिया लगवा कर वहां रोशनी कर दी थी।

बाद में कुछ युवा उनसे मिले व उन्होंने उनके इस कदम पर नाराजगी जताते हुए कहा कि पहले यह पार्क हम युवा जोड़ो के मिलने के अहम स्था न थे। हम लोगों की नजरो में आए बिना आसानी से मिल लेते थे मगर आपने पार्क को रोशनी से भरकर हमारा मिलन स्थल ही बर्बाद कर दिया। तब जाकर उन्हें लगा कि उनसे कितनी बड़ी गलती हो गई थी। युवा भी उनके मतदाता थे उन्हें नाराज करना ठीक नहीं था।

मिलन स्थल की समस्या कितनी व्यापक है इसका अनुमान तो इस बात से लगाया जा सकता है कि भगवान राम ने सीताजी को पहली बार तब देखा था व उनसे तब मिले जब वे बाग में मंदिर जाने के लिए फूल तोड़ने आई थी।

बॉलीवुड में गाना बना कि मैं तुमसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने व हम-तुम एक कमरे में बंद व चाभी खो जाए जोकि बेहद लोकप्रिय हुए। हमारे समय में कानपुर सरीखे शहर में जोड़ो के लिए मिलना एक बड़ी समस्या थी। चूंकि सबसे बड़ी समस्या यह थी कि दिल्ली के मुकाबले छोटा शहर होने व अपनी सामाजिक व्यवस्था होने के कारण जान-पहचान के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा होती थी। तब हम लोगों को अड़ोस-पड़ोस के लोगां में चाचा-चाची कहना बहुत सामान्य बात थी जोकि हमारी निजी जिदंगी में भी दखल रखते थे।

अगर किसी बुजर्ग ने किसी अन्य के साथ देखा तो घर में मां-बाप तक शिकायत पहुंचने में देर नहीं लगती थी। दूसरी बात यह थी कि शहर में ऐसे स्थल बहुत कम होते हैं जहां आसानी से मिला जा सके। तब न तो हमारे यहां ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल होते थे व न ही तब कानुपर समेत देश में मॉल होते थे। अतः हम लोगों के लिए मिलना बहुत बड़ी समस्या थी। फिर भी हम लोगों ने तरीके ढूंढ़ निकाले थे।

जैसे कि कानपुर रेलवे स्टेशन से कलस्टर गंज के लिए रिक्शा चला करता था जोकि एक साथ कई सवारिया बैठा लेता था। एक सवारी से वह चार आने लेता था। उन पर बैठकर जोड़े सफर करते थे। अगर किसी ने देख लिया तो यह सफाई दी जाती कि मुझे क्या पता कि मेरे साथ बैठने वाला कौन था। हम तो सवार के रूप मं एक साथ रिक्शे पर बैठे थे व स्टाप आने पर उतर कर अपनी-अपनी राह पर चले गए।

दूसरा लोकप्रिय तरीका 10 पेसे की पर्ची बनवा कर सरकारी अस्पताल में मरीजो की लाइन में लगकर बेंच पर सट कर बैठ जाना होता था। 10 पैसे में ही इंजेक्शन की खाली बोतल मिल जाती थी ताकि देखने वाले को लगे कि वह वहां डाक्टर को दिखाने व दवा लेने आए हैं। उन दिनों तो एक दूसरे से संपर्क करना भी बहुत बड़ी समस्या थी। तब सेलफोन नहीं होते थे व आमतौर पर बातचीत के लिए प्रेम पत्रो का इस्तेमाल किया जाता था जिन्हें एक दूसरे तक भिजवाना भी बहुत बड़ी समस्या थी। लोग इसके लिए स्कूल कॉपी के पन्नो का इस्तेमाल करते थे व छोटे भाई-बहन या कामवालियो की जेब गर्म करके उन्हें भिजवाते थे व अक्सर पकड़े जाने का खतरा बना रहता था।

सीसीडी में इंटरनेट की सुविधा होने के कारण वहां अपने लैपटॉप पर काम करते हुए एक दूसरे का मिलना बहुत आसान था। एक वजह यह भी थी की एक युवा के अनुसार हमारे मां-बाप के आने का डर नहीं रहता था क्योंकि वे 200 रुपए की कॉफी पीने को आ ही नहीं सकते थे। यहां के टायलेट काफी स्वच्छ व सुंदर होते थे जोकि पुरुषों में ही नहीं बल्कि महिलाओं में बहुत लोकप्रिय थे।

हमारे देश में किसी ने इस बात की कल्पना ही नहीं की कि महिलाएं लघु शंका के लिए कहां जाएंगी? यह समस्या कितनी व्यापक व खतरनाक है, इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जब मैं दिल्ली आया ही था तो एक बार मुझसे मिलने के लिए कानपुर से एक परिचित आए। हम लोग कहीं जा रहे थे तो उन्होंने लघु शंका की समस्या बताई। मैं उन्हें लेकर एक पांच सितारा होटल के टायलेट पहुंचा। कुछ देर में वह वहां से बाहर निकले व जल्दी घर चलने के लिए कहने लगे।

जब मैंने इसकी वजह पूछी तो बोले कि मुझे टायलेट जाना है। वहां कुछ न करने की वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि वह जगह इतनी साफ व खुशबूदार थी कि मुझसे कुछ करने की हिम्मत ही नहीं हुई। पुरुषों के लिए तो पूरा जहां ही शौचालय है जब जरूरस पड़ी पाजमा उठाकर निवृत हो गए। अब समझ में आया कि मेरे साथ भी महिला पत्रकार प्रेस कांफ्रेंस में ठंडा व चाय पीने से क्यों कतराती थी? यह तो इस देश की खूबी है कि यहां अगर दिमाग हो तो कुछ भी बेचा जा सकता है।

(साई फीचर्स)