(प्रणब बर्धन)
चुनाव आचार संहिता लागू हो चुकी है, लिहाजा राजनीतिक दल नई नीतियों की घोषणा नहीं कर सकते। लेकिन चुनाव हम बाकी लोगों को भी देश की नई दिशाओं पर सोचने का मौका देते हैं। इस मौके का इस्तेमाल मैं आर्थिक नीति से जुड़े चुनिंदा मुद्दे सुझाने में करना चाहूंगा, जो एक अर्से से अपनाए जाने की गुहार लगा रहे हैं लेकिन ज्यादातर सियासी पार्टियां उन्हें कोई तवज्जो नहीं दे रहीं। इनमें पहला है कृषि संकट, जिसका समाधान राजनेताओं ने कुछेक फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाने, संस्थागत कर्जे माफ करने और छोटे किसानों के लिए थोड़ी आय सहायता के रूप में खोजा है (भूमिहीन मजदूरों की विशाल तादाद को इससे बाहर रखते हुए)। जिन राज्यों में जमीनों के दस्तावेज खस्ताहाल हैं, वहां तो छोटे किसानों की शिनाख्त ही मुश्किल है।
इस संकट के दीर्घकालिक समाधान के उपाय सबको पता हैं लेकिन उनकी उपेक्षा की जाती है। ये हैं: लागत केंद्रित सब्सिडी में तीखी कटौती क्योंकि इनका फायदा अमीर तबकों को ही मिल पाता है और ये पर्यावरण के लिए हानिकर हैं। बिजली सब्सिडी भूजल स्तर को नीचे ले जाती है और खाद सब्सिडी पानी और मिट्टी के रासायनिक प्रदूषण का कारण बनती है। ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे सड़क, सिंचाई, गोदाम, कोल्ड स्टोरेज आदि में निवेश किया जाना चाहिए। भारतीय कृषि को अधिक मूल्य वाले फल, सब्जी और पशु उत्पादों की ओर मोड़ने के लिए यह खास तौर पर जरूरी है। बाजार के सारे चौनल कृषि उत्पादों के लिए खोलने होंगे और इस क्रम में मंडियों के मौजूदा मिलीभगत वाले स्वरूप का किस्सा खत्म करना होगा। इस प्रक्रिया में ही हम कृषि कंपनियों और सहकारी उपक्रमों की स्थापना कर सकते हैं, जो लगातार छोटी होती जोतों के नकारात्मक प्रभाव से निपटने का अकेला रास्ता है।
भारत की लगभग आधी श्रमशक्ति के निम्न उत्पादकता वाली खेती में फंसे रह जाने का मुख्य कारण यह है कि गैर-खेतिहर पेशों में उत्पादक काम के अवसर बहुत कम हैं। मौजूदा सरकार ने हमारी तेजी से बढ़ती युवा आबादी को रोजगार के मोर्चे पर झूठी उम्मीद दिखाई और आंकड़ों को छिपाने के घृणित प्रयास किए। इसके बावजूद हमारा ध्यान इस तथ्य से भटकना नहीं चाहिए कि उत्पादक रोजगार हमारे देश के सामने कई दशकों से एक समस्या बना हुआ है। कई राज्यों में श्रम कानूनों में ढील दिए जाने से भी कोई खास लाभ नहीं हुआ। रोजगार का संकट इतना गहरा और इस कदर विस्फोटक है कि नए वर्कर्स रखने के लिए मजदूरी में सब्सिडी या टैक्स छूट की सुविधा देने और अभी गांवों में चल रहे मनरेगा जैसा लोक निर्माण या जन सुविधा संबंधी कार्यों पर आधारित कोई शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम तत्काल शुरू किए जाने की जरूरत है। इसके साथ ही जो भी ग्रामीण कार्यक्रम हों, वे कानूनन मांग आधारित होने चाहिए, हालांकि व्यवहार में वे वैसे हैं नहीं।
समय के साथ सेकंड्री एजुकेशन का पुनर्गठन करना होगा और इसे एक व्यापक पेशेवर शिक्षा कार्यक्रम से जोड़ना होगा, अन्यथा रोजगार के इच्छुक बहुतेरे लोग इसके लायक ही नहीं रहेंगे। पर्यावरण की कई समस्याएं भी मुंह बाए खड़ी हैं (पानी की कमी, वायु प्रदूषण, मिट्टी का क्षरण), जिनके कारण शहरों का बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है और सांस लेना तक दूभर हो गया है। भारत में दुनिया भर की तमाम बीमारियां पाई जाती हैं, फिर भी आश्चर्यजनक रूप से जन स्वास्थ्य का सवाल भी दशकों से चुनावी मुद्दों से बाहर रहा है। वर्तमान सरकार ने गरीबों के लिए अस्पताल में भर्ती होने पर जरूरी इलाज हेतु आयुष्मान भारत जैसी योजना चलाई है। यह आरएसबीवाई जैसी पुरानी बीमा योजनाओं का ही थोड़ा उन्नत रूप है, जिसमें बेमतलब की दवाओं और सर्जरी के लिए आर्थिक सहायता पर जरूरत से ज्यादा जोर है। उत्तर भारत के अनेक निर्धन राज्यों में इसे लागू भी नहीं किया गया है। राजनीतिक स्तर पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए कि आखिर हम सब्सिडी आधारित एक निजी बीमा मॉडल को क्यों ढोते रहें जिसके दायरे में महज 40 फीसदी आबादी आती है और जिससे लोगों की दवाओं और अस्पताल के अलावा अन्य इलाज पर होने वाले पूरे खर्च की भरपाई भी नहीं होती? इसकी बजाय हम क्यों न एक यूनिवर्सल हेल्थ केयर अपनाएं जिसमें ज्यादा रिस्क कवर हों।
कल्याणकारी राजनीति पर गरीबी हटाओ कार्यक्रम काफी समय से हावी रहे हैं। इसके बावजूद न केवल गरीबी रेखा के नीचे बल्कि इसके ऊपर माने जाने वाले लोग भी बड़े पैमाने पर मौसम, स्वास्थ्य और बाजार से जुड़े तरह-तरह के जोखिम झेलने को मजबूर हैं। इन जोखिमों के मद्देनजर उन्हें न्यूनतम आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराने और परिवार में महिलाओं की स्वायत्तता को थोड़ी मजबूती देने के मकसद से बिना शर्त बुनियादी आय सुनिश्चित करने का विचार प्रस्तावित किया गया है। उपरोक्त सारे प्रस्ताव बेहद खर्चीले हैं। इनके लिए धन जुटाना है तो सब्सिडी और प्रत्यक्ष करों के मौजूदा ढांचों में बड़े पैमाने पर सुधार करना होगा। आखिर में दो ऐसे गैर-आर्थिक मसले भी हैं जो इकनॉमी को प्रभावित कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने प्रशासनिक सुधार का वादा किया था लेकिन इस पर अमल नहीं किया। आज भी सत्ता पीएमओ में केंद्रित है जिससे निर्णय के बाकी सारे केंद्र व्यर्थ हो गए हैं और को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म मजाक बन गया है। नौकरशाहों को तरक्की उनके कामकाज से नहीं, वरिष्ठता और राजनीतिक निष्ठा के आधार पर मिलती है। पब्लिक सेक्टर के उद्यमों और निजी सेक्टर के लिए बनी नियामक संस्थाओं की स्वायत्तता मात्र कागजों पर है। दूसरा गैर-आर्थिक मसला है नफरत और असहिष्णुता का वह माहौल, जिसे मौजूदा शासन ने खाद-पानी देकर बढ़ाया है। यह समाज में परस्पर विश्वास और सहयोग की भावना को नष्ट कर रहा है, जिस पर किसी भी मॉडर्न इकनॉमी का सफल संचालन और उद्यमों का फलना-फूलना निर्भर करता है।
(साई फीचर्स)