(हरीशंकर व्यास)
यह सवाल चंद्रबाबू नायडु, मायावती, ममता बनर्जी, तेजस्वी, सीताराम यचूरी आदि को ले कर भी बनता है। फिजूल बात है कि जीत यदि जश्न है तो हार आईसीयू या शोक। जनता विपक्ष में किसी को भी बैठाए, वह मातम क्यों? लोकतंत्र तभी है उसकी गांरटी तभी है जनता के हक तभी है जब विपक्ष है। इसलिए फालतू बात है कि हारे है तो दो-चार महिने आईसीयू में लेटे रहे। यह मनोभाव स्वस्थ लोकतंत्र और जिंदादिली की निशानी नहीं है। जो जीता उसकी जीत को सलाम, उसे शुभकामनाएं भी लेकिन यह तो नहीं हो कि विपक्ष घर बैठ जाए। सोचने, विचारने का ख्याल ही खत्म हो जाए। क्या हर्ज है जो मायावती- अखिलेश- अजितसिंह मिले और विचार करे कि क्या गडबड हुई? इन नेताओं में तात्कालिक विचार जरूरी है या शोक, कोपभवन में बंद हो कर ये अफवाहे उड़ने देना कि बसपा का वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हुआ और सपा घाटे में रही! हां, इस तरह की चर्चाएं, अफवाह सोशल मीडिया पर पहले दिन से प्रायोजित है ताकि जो एलायंस बना वह नतीजे के साथ बिखर जाए।
ऐसा प्रायोजित प्रचार झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र याकि एलायंस वाले सभी प्रदेशों में है तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को ले कर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह न थमे है और न थके है। नीतिश कुमार, उद्धव ठाकरे के साथ कैबिनेट पर विचार के बहाने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगे के विधानसभा चुनावों की बिसात बिछा दी है। पश्चिम बंगाल में तोड़ फोड चालू है। अपना मानना है कि बंगाल में इसी साल ममता सरकार अल्पमत और राष्ट्रपति शासन की नियति में महाराष्ट्र के साथ (या अगले साल दिल्ली संग) चुनाव की गेम प्लान से जूझ सकती है। बंगाल में हिंदू बावले है तो मोदी-शाह फटाफट हथौड़ा चला वहा भगवाई क्रांति का पैंतरा चल सकते है। ऐसे ही बिहार में विधानसभा भंग कर चुनाव का फैसला हो सकता है। यों भी नरेंद्र मोदी अधिक से अधिक चुनाव एकसाथ कराने के पक्षधर है। सो महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, झारखंड, हरियाणा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, दिल्ली में छह महिने बाद चुनाव कराने का भाजपा का रोड़मैप है तो शरद पवार, ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन, देवगौडा, राहुल गांधी, केजरीवाल आदि को क्या शोक में आईसीयू में बंद रहना चाहिए। सोचे, यदि दिशंबर से पहले इन सात राज्यों में भाजपा छप्पर फाड जीत पाएं और 2020 के विराम के बीच 2021 में दीपावली से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की शुरूआत से योगी राज का चुनावी अखाड़ा सजा तो अखिलेश, मायावती, राहुल गांधी के लिए चुनाव लड़ सकने वाली स्थिति क्या बन सकेगी?
पिछले सात दिनो में बंगाल, गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक से जो खबरे या जो घटनाक्रम है उसका अर्थ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषण में बदनीयत और बदइरादे में काम ने करने की बात से अपने प्रति भरोसा कितना ही बनाए, उनके राजनैतिक मकसदो का 2024 तक कलेंडर बन गया होगा। ऐसा में 2014- 2015 में भी लिखता था। गुजरात से ले कर अभी तक नरेंद्र मोदी की नंबर एक खूबी है जो दिन-प्रतिदिन के कलैंडर में घटनाओं को भरे रख कर जनता से लगातार कम्युनिकेशन बनाए रखते है। विपक्ष और बाकि नेता न बूझ पाते है और न समझ पाते है कि नरेंद्र मोदी जो करते है उसका एक-एक बिंदु राजनैतिक मकसद लिए हुए होता है।
सो जरूरत है कि शोक-मौन में होते हुए भी अखिलेश यादव- मायावती- अजित सिंह आगे के लिए विचार -करें। इन्हे क्यों राजनीति या एलायंस खत्म हुआ मानना चाहिए? हिसाब से एलायंस की पार्टियों के नेताओं को एकसाथ बैठ कर हार के कारणों पर विचार करते हुए अपने मतदाताओं, समर्थकों, देश को भरोसा दिलाना चाहिए कि जो हुआ सो हुआ अब आगे का हमारा फंला-फलां इरादा है। हमारी गतिविधियों का फंला-फंला एजेंडा व कलेंडर है।
सचमुच लोकतंत्र में जरूरी है कि जीत के साथ जीतने वाले का काम का एजेंडा बनता है तो हार के साथ विपक्ष का भी बनता है। विपक्ष भी अपना शेड़ो कैबिनेट बना अपनी जिम्मेवारी में तुरंत सक्रिय होता है। ब्रिटेन में, हाऊस ऑफ कॉमंस में ऐसा ही होता है। भारत के नतीजों के बाद योरोपीय संघ के चुनाव के नतीजे आए। उलटफेल वाला नतीजा था। स्थापित सत्ता पक्ष याकि जर्मनी की मर्केल, फ्रांस के मैक्रोन आदि को झटका लगा लेकिन हारा पक्ष मातम, बौरिया बिस्तर बांध घर नहीं बैठा। दोनों पक्ष उतने ही जिंदा, उतने सक्रिय दिख रहे है जितना दिखना चाहिए और जो लोकतंत्र की जरूरत है।
मगर अपने यहां, मुर्दा कौम की तासीर में हारने वाला इस दबाव मैं रहता है कि कुछ वक्त मुंह छुपा कर बैठे रहो। इसी प्रवृति का नतीजा है जो न भारत में, हिंदूओं में खेल भावना है और हार- निराशा की प्रवृति से वैश्विक ओलिंपक के पीटे हुए खिलाड़ी है।
शरद पवार, चंद्रबाबू नायडु और अखिलेश यादव का खोल में बंद हो जाना सर्वाधिक हैरानी वाली बात है। चंद्रबाबू चुनाव से पहले भारी भागदौड कर रहे थे अब हार से लकवे की दशा में है। जबकि उनके आगे जो जगन रेड्डी जीता है वह दस साल की रगड़ाई में जीता है। चंद्रबाबू खुद पहले बुरी तरह हारे और वापिस जीते है। मतलब जीत-हार का जब उन्हे अनुभव है तो ताजा हार के बाद तो उन्हे विपक्ष को एकजुट बनाने के लिए ज्यादा शिद्दत से काम करना चाहिए। विपक्ष में जरूरी है कि दो -तीन नेता हौसला बनवाते हुए आगे की तैयारी में सभी को और एकजुट बनाए। यह क्या बात हुई कि चुनाव जब पास आएगें तो नेता और पार्टियां सक्रिय होगी, एलायंस बनेगा। जब मोदी-शाह जीत के तुरंत बाद आगे के विधानसभा चुनावों, सन् 2024 का रोडमैप बना रहे है तो राहुल गांधी, अखिलेश, मायावती, शरद पवार, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडु चुनाव आए तभी मौसमी सक्रियता दिखाएं तो जनता में कैसे भरोसा बनेगा। ओलंपिक खत्म होता है तो उसी के साथ खिलाडियों, टीमों की अगले ओलंपिक की तैयारी शुरू हो जाती है। इस बात का भी मतलब नहीं है कि हार की पहले समीक्षा हो और फिर उस अनुसार तैयारी की जाए। इसलिए क्योंकि 2024 में मोदी-शाह स्थितियां अलग बनवाए हुए होंगे। 2014 में हार के बाद कांग्रेस में एके एंटनी कमेटी बनी। उसने कारण बूझा कि मुस्लिम तुष्टीकरण की चर्चा की कांग्रेस को कीमत चुकानी पड़ी। सो ऐसा इंप्रेशन दूर करने पर ध्यान दे। मगर इस समीक्षा का कोई मतलब नहीं था। एके एंटनी, राहुल गांधी, सोनिया या कांग्रेस या विपक्ष में किसी ने तब नहीं सोचा होगा कि 2019 में चुनाव से ऐन पहले पुलवामा, एयरस्ट्राइक और सेना का उपयोग होगा और तब क्या करेगें?
इसलिए अखिलेश, राहुल, तेजस्वी, हेमंत, शरद पवार को न शोक रखना चाहिए और न हार की समीक्षा जैसी फालतू बातों में पड़ना चाहिए। विपक्ष को पहले दिन मतलब नई सरकार के गठन के दिन से बतौर टीम जुटना चाहिए। यह मान कर राजनीति करनी चाहिए कि मोदी-शाह के पास कंट्रोल है। वे ज्यादा दमखम लिए हुए है। इसलिए विपक्ष को ही ज्यादा कवायद, ज्यादा धमाल, ज्यादा एकजुटता, ज्यादा बेशर्मी और सत्ता पक्ष की बनवाई दबिश की विपरित स्थितियों में अपने को सुखाना होगा, तपस्या करनी होगी। क्या नहीं?
(साई फीचर्स)

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