क्या वैश्विक-शांति संभव है?

 

 

(बलबीर पुंज)

विश्व में शांति कैसे संभव है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास विगत 6-7 सितंबर को बौद्ध बहुल मंगोलिया की राजधानी उलानबातर में आयोजित संवाद-3 में हुआ। इस सम्मेलन का का मुख्य विषय- बौद्ध और हिंदू की पहलः वैश्विक संघर्ष का परिहार एवं पर्यावरण चेतना रहा, जिसमें भारत सहित विभिन्न देशों के जनप्रतिनिधि, बुद्धिजीवी और धर्मगुरु इत्यादि शामिल हुए। बतौर वक्ता मुझे भी इसमें शामिल होने का अवसर मिला और वहां भारतीयों के प्रति आदर, सम्मान और प्रेम देखकर मुझे सुखद अनुभव भी हुआ।

मैं भूल नहीं सकता कि उलानबातर प्रवास के समय आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का एक कार्यक्रम मंगोलियाई संसद के सामने आयोजित किया गया था। तब वहां दस हजार से अधिक स्थानीय लोग (अधिकांश युवा) न केवल शामिल हुए, अपितु वह श्री श्री रविशंकर के पांव छूकर आशीर्वाद लेने हेतु उत्सुक भी दिखे। मैं इस कार्यक्रम की अग्रिम पंक्तियों में अन्य गणमान्य अतिथियों के साथ विराजमान था। जब हम नीचे उतरें, तब संभवतः जो लोग श्री श्री रविशंकर तक पहुंचने में विफल रहे थे, उनमें से कई लोगों ने मुझ सहित अन्य लोगों के पांव छूकर आशीर्वाद लेने का भी प्रयास किया।

वास्तव में, यह दृश्य खंडित भारत और बौद्ध पंथ के सदियों पुराने संबंध, साझा संस्कृति और परंपरा को प्रत्यक्ष रूप से रेखांकित कर रहा था। अपने जीवनकाल में भगवान गौतमबुद्ध ने विश्व को शांति का संदेश और ज्ञान का प्रकाश भारत से ही दिया था और उसी पावन धरती पर जन्म लेने के कारण श्री श्री रविशंकर सहित अन्य भारतीयों के प्रति मंगोलियाई नागरिकों के भीतर आदर-सम्मान का भाव उमड़ रहा था।

इस भावना का प्रतिबिंब वर्ष 2015 में तब भी दिखा था, जब स्वतंत्र भारत में बतौर पहले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने मंगोलिया का दौरा किया था। इस दौरान उन्होंने उलानबातर स्थित गंदन मठ के मुख्य महंत और मंगोलिया के सर्वाेच्च बौद्ध नेता खंबो लामा को बोधि वृक्ष का एक पौधा भेंट किया था। उलानबातर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दलाई लामा द्वारा प्रदत्त भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का भी उद्घाटन संवाद-3 सम्मेलन के दौरान ही किया गया।

चीन और रूस के बीच में स्थित मंगोलिया यूं तो भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग आधा है, किंतु उसकी जनसंख्या हमारे देश की राजधानी दिल्ली की कुल आबादी 1.7 करोड़ का एक चौथाई भी नहीं है। वर्ष 1921 से मंगोलिया- हिंसक और अधिनायकवादी वामपंथी शासन के जकड़ में था, किंतु 1991 में साम्यवाद के पतन के बाद यहां सार्वजनिक धार्मिक अभ्यास पुनः बहाल हुआ और लोकतांत्रिक संविधान को स्थापित कर दिया गया। इस समय मंगोलिया की कुल आबादी लगभग 32 लाख है, जिसमें से 53 प्रतिशत से अधिक बौद्ध अनुयायी है, तो 39 प्रतिशत किसी भी मजहब को नहीं मानते है। यहां ईसाई चर्चों द्वारा बलात्मतांतरण, बौद्ध समाज की चिंता का सबसे बड़ा कारण बना हुआ है।

इसी परिदृश्य में हमारे कॉलम के मूल प्रश्न- वैश्विक शांति कैसे संभव है?- का उत्तर निहित है। संवाद-3 सम्मेलन में गोलमेज बैठक के दौरान एक घोषणापत्र भी जारी किया गया था, जिसमें विश्व शांति के समक्ष खड़े अवरोधकों पर गहरी चिंता प्रकट की गई है। इसी में से मैं दो बिंदुओं पर चर्चा करना चाहूंगा, जिसमें एक म्यांमार की काउंसलर आंग सान सू की, के लिखित संदेश के छोटे अंश से संबंधित है- तो दूसरा 91 वर्षीय स्विस कैथोलिक पादरी, दर्शनशास्त्र और लेखक हांस कूंग की पंक्तियों से।

आंग सान सू की के अनुसार, कुछ जिम्मेदार धर्मज्ञ अपने संबंधित धर्मों द्वारा दिखाए गए वास्तविक उपदेशों का ज्ञान देने में रुचि नहीं लेते हैं। कुछ तो अपने अनुयायियों को मजहब के नाम पर फर्जी और झूठे सिद्धांतों द्वारा गलत मार्ग पर ले जाते हैं। इस आधार पर क्या काफिर-कुफ्र, बुतपरस्त और हीथेन आदि फर्जी या झूठे मजहबी सिद्धांत है? क्या इससे बड़ा विरोधाभास कुछ और हो सकता है?

सू के विचारों की पृष्ठभूमि में स्विस कैथोलिक पादरी हांस कूंग का मानना हैं, जबतक मजहबों के बीच शांति नहीं होगी, राष्ट्रों के बीच शांति नहीं हो सकती। जबतक मजहबों के बीच संवाद नहीं होगा, तबतक उनके बीच शांति संभव नहीं। और जबतक प्रत्येक मजहब की नींव पर शोध नहीं किया जाता, तबतक उनके बीच एक सार्थक संवाद नहीं हो सकता। क्या इस युक्ति में वैश्विक शांति का मार्ग निहित नहीं?

यदि कोई भी अपराध या फिर सामाजिक कुरीति- मजहब या किसी विशेष विचारधारा से प्रेरणा लेने का दावा करे, तो यह स्वाभाविक है कि उसकी पवित्र पुस्तकों, उसके जन्मदाता, पथ-प्रदर्शकों के जीवन का विस्तृत अध्ययन किया जाए और उसपर ईमानदार संवाद हो। हिंदू समुदाय लंबे समय से अस्पृश्यता की समस्या से जूझ रहा है। समाज के भीतर से ही न केवल इस बुराई की निंदा की गई, बल्कि उसके उन्मूलन हेतु कई ठोस कदम भी उठाए गए। परिणामस्वरूप, बौद्धिक स्तर पर आज इसका कोई भी समर्थन नहीं करता है।

वास्तव में, वैश्विक शांति के मार्ग में वह दर्शन सबसे बड़ा अवरोधक है, जिसमें अनुयायी को सच्चा तभी माना जाता है, जब वह किसी गैर-मतावलंबी को मतांतरित के लिए बाध्य करें या फिर उसे किसी भी तरह मिटा दें। सच तो यह है कि इस प्रकार के चिंतन और अपने मजहब को ही एकमात्र सत्य बताने के दर्शन ने विश्व में संघर्ष का बीजारोपण किया है। क्या यह सत्य नहीं कि आज विश्व को जिस आतंकवाद से सर्वाधिक खतरा है, उसे काफिर-कुफ्र अवधारणा से प्रेरणा मिल रही है, जिसका दंश भारत आठवीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर मजहबी आक्रमण से अबतक झेल रहा है? 1947 में भारत का रक्तरंजित बंटवारा, यहूदी राष्ट्र इजराइल से मुस्लिम देशों की घृणा, कश्मीर संकट, 9/11 और 26/11 सहित हाल के वर्षों में विश्व के अलग-अलग कोनों में हो रहे आतंकी हमलों आदि सबकी पटकथा- इसी विषाक्त दर्शन ने लिखी है।

ईसाई मत में भी सदियों से अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने हेतु बुतपरस्तों के मतांतरण और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की रूढ़ परंपराएं है। यही नहीं, यूरोपीय ईसाइयों ने फिलिस्तीन और उसकी राजधानी यरुशलम में स्थित अपनी पवित्र भूमि, ईसा की समाधि पर अधिकार करने के लिए सन् 1095 और 1291 के बीच सात बार आक्रमण किया था, जिसे क्रूसेड या क्रूश युद्ध के नाम से जाना जाता है। क्रिस्टोफर कोलंबस ने भी उसी मजहबी अभियान के अंतर्गत 1492 में अमेरिका की खोज की थी, जहां के मूल निवासियों- रेड इंडियंस, और संस्कृति को मजहबी दायित्व की पूर्ति हेतु कालांतर में खत्म कर दिया गया। क्रूसेड के नाम पर ही पुर्तगाली, डच और अंग्रेज भारतीय तटों पर उतरे थे और जबरन लोगों को मसीह के चरणों में शरण लेने हेतु बाध्य किया था। आज भी भारत के पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियां व चर्च मतांतरण में लिप्त है।

गत एक शताब्दी के इतिहास पर प्रकाश डाले तो विश्व कई हिंसक संघर्षों का साक्षी बना है। पहला विश्वयुद्ध 1914-1918 के कालखंड में हुआ, जिसके पश्चात दुनिया में शांति हेतु जनवरी 1920 में लीग ऑफ नेशन की स्थापना हुई। दूसरा विश्वयुद्ध 1939-1945 के कालांतर में हुआ, तो अमेरिका, फ्रांस आदि देशों ने मिलकर संघर्ष को रोकने हेतु संयुक्त राष्ट्र महासंघ को स्थापित किया। इस संगठन का मूल उद्देश्य ही यही है कि भविष्य में अब पुनः विश्वयुद्ध न हो। प्रतिकूल इसके दुनिया में छोटे-मोटे युद्ध या संघर्ष सामने आए है- जिसमें 1947, 1965, 1971, 1999 में भारत-पाकिस्तान का युद्ध, 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1945 और 1950-53 का कोरिया संघर्ष, 1948-49 और 1967 में इजराइल-अरब युद्ध, 1946 का ईरान संघर्ष, 1956 में स्वेज युद्ध, 1978 का सोवियत-अफगानिस्तान युद्ध, 2003-11 का इराक युद्ध आदि शामिल है। क्या यह सत्य नहीं कि पिछली एक सदी में जितने भी युद्ध या संघर्ष हुए, उनमें अधिकांश मजहब से प्रेरित है?

एक धारणा विश्व में यह भी प्रचलित है कि यदि सभी लोग अनीश्वरवादी या नास्तिक हो जाए, तभी दुनिया में शांति और समरसता संभव है। क्या मजहब-विहीन समाज दुनिया को अमन का रास्ता दिखा सकता है? मार्क्सवादी विचारधारा में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। इसलिए कम्युनिस्टों ने सोवियत संघ, उत्तर कोरिया और चीन आदि देशों में मजहब का सफाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों का सरकार प्रायोजित उत्पीड़न- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। क्या यह सत्य नहीं कि विश्व के जिस भूखंड को अनीश्वरवादी मार्क्सवादी दर्शन ने अपनी चपेट में लिया- वहां न केवल खूनी हिंसा उसकी नीति बनी, साथ ही वैचारिक विरोधियों को मौत के घाट तक उतार दिया गया और संबंधित क्षेत्र की परंपराओं, संस्कृति, मानवाधिकारों सहित मजहबी स्वतंत्रता का भी गला घोट दिया गया। अकाट्य सत्य तो यह है कि यदि विश्व मजहबी/वैचारिक हिंसा और संघर्ष को प्रेरित करने वाले दर्शन/विचारधारा पर मुखर चर्चा करने से बचता रहा या उसे विरोधाभासी बनाता रहा, तो दुनिया का इस विकृत टकराव से मुक्त होना- असंभव है।

(साई फीचर्स)