जम्मू-कश्मीर मसले पर इतिहास से सीखना जरूरी

 

 

(उर्मिलेश)

उड़ी आतंकी हमले के 11 दिनों बाद भारतीय सेना ने 29 सितंबर 2016 को जबर्दस्त तैयारी के साथ नियंत्रण रेखा पार कर बहुचर्चित सर्जिकल-स्ट्राइक की थी। इस बार पुलवामा के भयानक आतंकी हमले के आठ दिनों बाद 22 फरवरी की रात से ही कश्मीर घाटी के अंदर एक बड़े ऑपरेशन को अंजाम दिया गया, जिसके तहत घाटी के कई अलगाववादी नेता गिरफ्तार किए गए हैं। इसके लिए सुरक्षा बलों की सौ अतिरिक्त कंपनियां भेजी गई हैं, जबकि कश्मीर देश का इकलौता राज्य है जहां सेना के तीन कोर मुख्यालय हैं। यानी घाटी में सुरक्षा बलों की कोई कमी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि नई कंपनियां क्रैकडाउन के जरिए अलगाववादियों को बैकफुट पर ले जाने के लिए भेजी गईं। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र में सरकार के कूटनीतिक प्रयासों को भी कामयाबी मिली। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने पहली बार पुलवामा आतंकी हमले की निंदा में वक्तव्य जारी किया। निश्चय ही इसका पाकिस्तान पर कुछ असर पड़ता दिखा। इस्लामाबाद से जारी आदेश के बाद बहावलपुर स्थित जैश-ए-मोहम्मद के सदर मुकाम को पाकिस्तानी पंजाब के प्रांतीय प्रशासन ने अपने कब्जे में ले लिया।

अपने जम्मू-कश्मीर के हालात पर नजर डालें तो ठोस पहल की किसी नई तस्वीर के बजाय 1990 की वही पिटी-पिटाई तस्वीरें ही नजर आ रही हैं। लगता है जैसे पुरानी त्रासदी को और भोंडे ढंग से दोहराया जा रहा है। जिस तरह तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के दौर में अभूतपूर्व सैन्य-अभियान चलाया गया और नैशनल कॉन्फ्रेंस को छोड़कर कश्मीर के ज्यादातर दलों के नेताओं को जेलों मे डाला गया था, कुछ उसी तर्ज पर पर हाल का क्रैकडाउन भी आगे बढ़ा। सन 1990 में जो अभियान चला, उसको कश्मीर में सरकारी विफलता के स्मारक के तौर पर देखा जाता है। मौजूदा अभियान के नतीजे आने वाले दिनों में दिखेंगे। लेकिन घरेलू स्तर पर ऐसे अभियान और वैश्विक मंच पर सरकार के कूटनीतिक प्रयासों के बीच कोई संगति नहीं दिखाई देती। सेना के जिस जनरल की रणनीतिक देखरेख में सितंबर, 2016 की बहुचर्चित सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी, उन्हीं लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डी एस हुड्डा ने बार-बार कहा कि कश्मीर में सेना अपना काम करती आ रही है, पर कश्मीर का मसला बुनियादी तौर पर राजनीतिक है, इसके समाधान के लिए राजनीतिक स्तर पर प्रयास होने चाहिए।

क्या कोई बता सकता है कि मौजूदा सरकार ने कश्मीर के राजनीतिक समाधान के लिए बीते पौने पांच साल में क्या कदम उठाए हैं? 1990 में तब की केंद्र सरकार और सूबे के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने भी यही गलतियां की थीं। उन्हें लगा था कि सैन्य बल के जरिए कश्मीर को हमेशा के लिए शांत कर दिया जाएगा। मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही मनमोहन सिंह सरकार की कश्मीर नीति को पूरी तरह पलट कर सबसे बड़ी गलती की। उसे अलगाववादी नेताओं के साथ संवाद कायम रखते हुए सरहद पार से होने वाली गतिविधियों पर अंकुश लगाना

और घाटी में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर अपने सैन्य और सुरक्षा प्रबंधों को पुख्ता करना चाहिए था। पर सरकार संघ के एजेंडे के तहत सरहदी सूबे को हिंदुत्व के चश्मे से देखने लगी। कभी 370 के खात्मे की बात की जाती तो कभी 35-ए को कानून के बल पर कमजोर करने का प्रचार होता रहा। फिलहाल, चुनावी चिंता के तहत पूरे मामले को कश्मीर बनाम शेष भारत का खतरनाक रंग दिया जा रहा है।

89-90 के बाद से ही कश्मीर घाटी में सैन्य और अर्द्धसैनिक बलों की भारी तैनाती है, जिसे मौजूदा सरकार ने चरम पर पहुंचा दिया है। आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद घाटी में पत्थरबाज युवाओं से निपटने के लिए इजराइली पैलेट गनों का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा था, तब उसके समानांतर घाटी में आतंकियों की नई कतारें भी तैयार हो रही थीं। अलगाववादियों या अन्य कश्मीरी संगठनों से बातचीत का सिलसिला ठप किया जा चुका था। पाकिस्तान से द्विपक्षीय संवाद भी खत्म सा हो गया। कुछेक राजनीतिक प्रयासों के चलते वाजपेयी और मनमोहन दौर में स्थानीय स्तर पर आतंकियों की भर्ती का सिलसिला कमजोर पड़ा था। खासकर मनमोहन सरकार के कार्यकाल में घाटी के अंदर कश्मीरी मूल के आतंकी गिने-चुने रह गए थे। आज यह संख्या सैकड़ों में पहुंच गई है। क्या सरकार ने इसकी वजह तलाशने की कोशिश की? 2014 से अब तक कश्मीर में 1513 लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें जवानों की संख्या 404 है। कारगिल युद्ध में मारे गए जवानों की संख्या 527 बताई गई थी। कैसी विडंबना है कि बिना युद्ध के ही मोदी सरकार इस आंकड़े तक पहुंच गई है।

कश्मीर समस्या की जटिलता को लेकर सरकार बुरी तरह भ्रमित नजर आती है। पुलवामा आतंकी हमले के बाद आगरा सहित कई शहरों के होटलों में यहां कश्मीरियों के लिए कोई जगह नहीं की तख्तियां लग गईं, पर शासकीय स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। 1990 से आज तक कश्मीर में सभी तरह के लोगों को मिलाकर 40 हजार से अधिक मारे जा चुके हैं। क्या कभी कश्मीर के किसी होटल में ऐसी तख्ती लगी कि कश्मीर से बाहर के भारतीयों के लिए वहां के होटलों में जगह नहीं है? यूपी, राजस्थान सहित कई प्रदेशों में ऐसे कॉलेजों-होटलों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई, जो कश्मीरी छात्रों को अपने यहां से हटा रहे हैं या उत्पीड़ित कर रहे हैं? सरकार की निष्क्रियता के चलते ही इस पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। जरूरत ठोस राजनीतिक पहल की है। अगर कश्मीर को दोबारा सिर्फ सैन्य-नजरिये से देखने की गलती की गई तो नतीजे निराशाजनक होंगे।

(साई फीचर्स)

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