(चंद्रभूषण)
बड़ी जीत बड़ी चुनौतियां भी साथ लाती है। यह कहावत मोदी सरकार पर लागू की जाए तो कहना होगा कि उसके दूसरे संस्करण की चुनौतियां पहले से ज्यादा बड़ी होने वाली हैं। आम चुनाव-2019 की बुल्डोजर जीत ने नरेंद्र मोदी के कद को इंदिरा गांधी की बराबरी पर ला दिया है। लेकिन उनसे आम जनता की अपेक्षाएं इंदिरा गांधी से ही नहीं, जवाहर लाल नेहरू से भी ज्यादा हैं। चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि एक विकसित, ताकतवर देश के एकछत्र नेता के रूप में लोग उन्हें देख रहे हैं। किसी गरीब, विकासशील, स्वाभिमानी देश के संघर्षरत राष्ट्राध्यक्ष के रूप में नहीं। उन्होंने लगातार दूसरी बार एक अकेली पार्टी को पूर्ण बहुमत सौंपा है। वोट अपने क्षेत्र के प्रत्याशी का मुंह देखकर नहीं, नरेंद्र मोदी के नाम पर डाले हैं। ऐसे में नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद से लोगों की उम्मीदों को तार्किक स्तर पर लाने की रहेगी।
इस काम में मोदी सरकार को अबतक विपक्ष से काफी मदद मिलती रही है। गिनना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कितनी बार देश की बदहाली के लिए पिछली सरकारों, कांग्रेस की नीतियों और गांधी-नेहरू परिवार को जिम्मेदार ठहराया है। उधर से नजर हटने पर वे बाकी विपक्षी दलों की तरफ लोगों का ध्यान ले जाते रहे हैं, जो अपनी जातीय, क्षेत्रीय या धार्मिक सीमाओं से शायद ही कभी उबर पाते हैं। लेकिन यह दूसरे दौर की मोदी सरकार हर तरह के संगठित विपक्ष का सफाया करती हुई आ रही है। खुद राहुल गांधी और उनकी पार्टी की स्थिति इतनी दयनीय है कि सरकार अपनी किसी असफलता के लिए उसकी आड़ लेती है तो लोगों को बहुत अटपटा लगेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह उत्सुकता बची हुई थी कि लोकसभा में विपक्ष का दर्जा हासिल करने के लिए जरूरी 55 सीटें कांग्रेस को मिल पाएंगी या नहीं। किसी संयोगवश वे मिल भी जाती हैं तो भारतीय लोकतंत्र में नेता विपक्ष को जो अधिकार प्राप्त हैं, उनका मिलना काफी हद तक सरकार की मर्जी पर ही निर्भर करेगा। अच्छा होगा कि मोदी सरकार इस मामले में उदारता दिखाए। क्योंकि संसद में विपक्ष का सक्रिय दिखना सरकार की भीतरी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाएगा।
ज्यादा ठोस चुनौतियों पर बात करें तो नई मोदी सरकार को याद दिलाना होगा कि पहली बार वह अच्छे दिन के नारे के साथ सत्ता में आई थी। अच्छे दिन आने वाले हैं, हम मोदीजी को लाने वाले हैं। सब जानते हैं कि यह चुनाव सरकार के पांच वर्षों के कामकाज पर नहीं, 14 फरवरी को पुलवामा में हुए आतंकी हमले से लेकर 18 मई को समाप्त हुई प्रधानमंत्री की बद्रीनाथ-केदारनाथ यात्रा के बीच गुजरे कुल तीन महीनों के दृश्यों, गतिविधियों और नारों के सहारे ही लड़ा और जीता गया है। अब जब चुनाव सरकार के लिए बेहद सकारात्मक नतीजों के साथ संपन्न हो चुके हैं तब लोग-बाग अपने इर्द-गिर्द उन अच्छे दिनों को घटित होते देखना चाहेंगे। एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री ने कहा कि उज्ज्वला योजना के तहत ग्रामीण महिलाएं धुआंमुक्त रसोई में खाना बना रही हैं, किसानों के खाते में 4000 रुपये पहुंच चुके हैं, घर-घर में शौचालय बन गए हैं, स्वच्छता का प्रसार हो रहा है, सड़कें बन रही हैं- अच्छे दिन और कैसे होते हैं? चुनाव प्रचार के लिहाज से अच्छे दिनों की यह व्याख्या सटीक साबित हुई, लेकिन अगले पांच सालों में इसके और मतलब भी खोजे जाएंगे।
सबसे बड़ी मुश्किल रोजगार की है। हाल में सरकारी आंकड़ों में ही बेरोजगारी को बीते 45 वर्षों में सर्वाेच्च स्तर पर बताया गया था, हालांकि सरकार ने इस नतीजे पर मोहर लगाने से इनकार कर दिया। यह सवाल आगे और दम से सरकार का पीछा करने वाला है कि रेलवे में चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिए भी बीटेक, एमबीए और डॉक्ट्रेट किए हजारों उम्मीदवारों की भीड़ क्यों जमा हो रही है। सरकार का कहना है कि इसके पीछे सरकारी नौकरियों का आकर्षण काम कर रहा है, जबकि प्राइवेट सेक्टर देश में जिन लाखों रोजगारों का सृजन कर रहा है, उनपर किसी का ध्यान ही नहीं है। समस्या यह है कि यह व्याख्या आने वाले दिनों में सरकार की ज्यादा मदद नहीं कर पाएगी। अकुशल मजदूरों को सबसे ज्यादा काम देने वाला कॉन्स्ट्रक्शन सेक्टर पिछले पांच सालों में पस्त पड़ा रहा और बैंकिंग सेक्टर की खस्ताहाली के चलते आज भी इसके उठ पाने की संभावना बहुत कम है। मैन्युफैक्चरिंग ठहरी हुई है और चीन-अमेरिका ट्रेड वॉर के चलते आ रहा ग्लोबल ठहराव इसमें एकाध साल तक कोई बड़ा बूस्ट नहीं आने देगा। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि रेलवे के दिल्ली-मुंबई फ्रेट कॉरिडोर को जल्दी शुरू कराया जाए और देश के बाकी इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स को भी छोटे उद्योग-धंधे खड़े करने का जरिया बनाया जाए।
जनादेश को दूसरी तरफ से देखें तो बीजेपी की जीत को उसका कोर वोटर हिंदुत्व के राज्याभिषेक की तरह देखता रहा है। उसके लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, संविधान के जम्मू-कश्मीर संबंधी अनुच्छेद 370 का खात्मा और यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला अब और इंतजार करने का नहीं रहा। ज्यादा उत्साही समर्थक पाकिस्तान को भी सबक सिखाना चाहते हैं। लेकिन यहां एक नई मुश्किल सामने आ रही है। आईएसआईएस जैसे नॉन-स्टेट ऐक्टर अगर दक्षिण एशिया में ज्यादा सक्रिय हुए, जिसकी आशंका इधर काफी बढ़ गई है तो किसी न किसी मोड़ पर उनसे निपटना सिर्फ पाकिस्तान को रगड़ने से संभव नहीं हो पाएगा। इसमें कोई शक नहीं कि पिछली वाली की तरह नई मोदी सरकार की धुरी भी शत-प्रतिशत नरेंद्र मोदी ही होंगे। लेकिन इस सरकार का हिंदू तत्व पिछली के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत है। इससे यह आशंका बनती है कि इस सरकार का मुख्य विपक्ष कहीं बाहर नहीं, इसके भीतर ही दिखेगा।
(साई फीचर्स)