(अजित द्विवेदी)
देश की चुनावी राजनीति में क्या चल रहा है? पहली नजर में देखें या देश के टेलीविजन चौनलों का भरोसा करें और सोशल मीडिया के ट्रेंड को समझें तो लगेगा कि देशभक्ति की लहर चल रही है। जम्मू कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, सीआरपीएफ के काफिले पर हुए आतंकवादी हमले और उस हमले में शहीद हुए जवानों की तेरहवीं के दिन बालाकोट में जैश ए मोहम्मद के आतंकवादी शिविरों पर वायु सेना की कार्रवाई के बाद देशभक्ति की जो लहर उठी थी उसके कायम रहने का दावा किया जा रहा है। किसी न किसी तरीके से भाजपा इस लहर को बनाए रखने का प्रयास कर रही है। मसूद अजहर के बहाने, आतंकवाद के बहाने और चीन के बहाने देशभक्ति की अलख लोगों के दिलदिमाग में जलाए रहने का प्रयास हो रहा है।
पर क्या सचमुच वह लहर कायम है या किनारे पर आकर जिस तरह समुद्र की लहरें लौट जाती हैं वैसे ही देशभक्ति की लहर भी लौट गई और चुनावी राजनीति में ठहराव आ गया? राजनीति फिर से पुराने विमर्श पर लौट गई? भारत में चुनावी राजनीति के पुराने विमर्श का मतलब होता है, जातीय गोलबंदी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, जोड़-तोड़ की राजनीति, गठबंधन और वोटों की खरीद-फरोख्त! मजेदार बात है कि देशभक्ति के भारी हल्ले के बीच भी भाजपा ने कभी भी इस पुराने विमर्श को नहीं छोड़ा। तभी ऐसा लग रहा है कि मीडिया के कुछ अति उत्साही पत्रकारों और सोशल मीडिया में भाजपा समर्थकों की तरह भाजपा किसी मुगालते में नहीं है।
तभी भारतीय जनता पार्टी ने पुलवामा की घटना के तुरंत बाद महाराष्ट्र में अपनी सहयोगी शिव सेना को मनाया और अपने कोटे से एक सीट ज्यादा देकर उसको गठबंधन के लिए जारी किया। तमिलनाडु में भाजपा सिर्फ पांच सीटों पर लड़ने को राजी हुए और अन्ना डीएमके के दोनों धड़ों पर दबाव डाल कर कैप्टेन विजयकांत की डीएमडीके को एलायंस में शामिल कराया। भावनात्मक रूप से अहम माने जा रहे नागरिकता संशोधन कानून की रट छोड़ कर असम गण परिषद की अपने गठबंधन में वापसी कराई। उत्तर प्रदेश में नाराज चल रहीं अनुप्रिया पटेल को मना कर उनकी पार्टी अपना दल के साथ गठबंधन का ऐलान किया।
गठबंधन मजबूत करने के साथ साथ भाजपा ने बेहद आक्रामक तरीके से जोड़-तोड़ और दलबदल कराना शुरू किया है। गुजरात में कांग्रेस के कई विधायक पाला बदल कर भाजपा में चले गए। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और सीपीएम के आधा दर्जन बड़े नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कराया है। इसमें कई सांसद और विधायक हैं। ओड़िशा में बीजू जनता दल के एक सांसद को भाजपा ने तोड़ा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस विधायक दल के नेता के बेटे को भाजपा ने अपनी पार्टी में शामिल करा कर टिकट देने का ऐलान किया है।
तभी सवाल है कि अगर देशभक्ति की लहर चल रही होती और भाजपा इस मुगालते में होती कि पुलवामा और बालाकोट के सहारे चुनावी वैतरणी पार हो जाने वाली है तो वह पारंपरिक राजनीति के सारे दांव-पेंच नहीं आजमा रही होती। अब कहने को कहा जा सकता है कि यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की फितरत है कि वे कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं। चुनाव जीतने के लिए वे सारे दांव आजमाते हैं। इसलिए एक तरफ देशभक्ति की लहर पैदा करने का दांव है तो दूसरी ओर गठबंधन, जोड़-तोड़, दलबदल आदि का दांव भी है। पर असलियत यह है कि उन्हें किसी एक दांव पर भरोसा नहीं है। और ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के अलग अलग हिस्सों में देशभक्ति के बरक्स उनको दूसरे समीकरण काम करते दिख रहे हैं, जिसकी काट के लिए उन्हें भी दूसरे समीकरण बनाने पड़ रहे हैं।
भाजपा को लगा कि असम और पूर्वाेत्तर के दूसरे राज्यों में नागरिकता कानून का मुद्दा भारी पड़ सकता है। असम गण परिषद का अलग होना भी नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए वहां अगप से तालमेल करना पड़ा। अगर देशभक्ति की लहर का भरोसा होता तो भाजपा नागरिकता के मसले पर कतई समझौता नहीं करती। इसी तरह झारखंड में महागठबंधन की वजह से भाजपा को सफाए का अंदेशा हुआ तो उसने आजसू से तालमेल करके उसके लिए सीट छोड़ी। महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी और राजू शेट्टी के तालमेल का मुकाबला करने के लिए भाजपा देशभक्ति के भरोसे नहीं बैठी रही, उसने शिव सेना से तालमेल किया। भाजपा अगर हर राज्य में अपने हित छोड़ कर तालमेल कर रही है और दूसरी पार्टियों से नेताओं को तोड़ कर उनको टिकट की गारंटी कर रही है तो इसका मतलब है कि उसे जमीनी राजनीति का अंदाजा है।
तभी जिनको लग रहा है कि देशभक्ति की लहर चल रही है उनको जमीनी राजनीति को जरा बारीकी से देखने की जरूरत है। अगर देशभक्ति की लहर होती तो ऐसा नहीं होता कि वह लहर एक राज्य में काम कर रही होती और दूसरे में नहीं। अगर देशभक्ति की लहर काम कर रही होती तो विपक्ष के गठबंधन का गणित काम नहीं करता। अगर गठबंधन का गणित काम कर रहा है तो इसका मतलब है कि देशभक्ति की लहर काम नहीं कर रही है। देशभक्ति के असर का आकलन करते हुए एक दूसरी गड़बड़ी, जो हर राजनीतिक विश्लेषक कर रहा है वह ये है कि देशभक्ति और सांप्रदायिकता को एक कर दिया जा रहा है। इस हकीकत को समझना होगा कि पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई की तरफदारी कर रहा व्यक्ति देशभक्त है पर जरूरी नहीं है कि वह सांप्रदायिक हो या भाजपा को ही वोट करे। सो, देशभक्ति और सांप्रदायिकता को अलग करके देखेंगे तो देशभक्ति की लहर और कमजोर हुई दिखेगी।
(साई फीचर्स)