भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार!

(शंकर शरण)

गत 11 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में आधिकारिक रूप से कहा गया, कि 1. लोगों को जानने की जरूरत नहीं कि राजनीतिक दलों को कहाँ से चंदा मिल रहा है, 2. समय की सच्चाई को देखते हुए विचार करना चाहिए, तथा 3. पारदर्शिता को कोई मंत्र नहीं बनाना चाहिए। कोड में कही गई इन बातों का अर्थ है कि राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार की छूट रहनी चाहिए! यदि वे पैसे ले-लेकर देश-विदेश के अज्ञात लोगों, एजेंसियों, कंपनियों, संगठनों, आदि के हित में भी कुछ काम करते रहें, तो इस से आम वोटरों को क्या मतलब?

कहना होगा, कि यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक नये दुस्साहसी युग की घोषणा है! यदि हमारे राजनीतिक दल, विशेषकर सत्ताधारी दल, देश के चौकीदार हैं – तो उन्होंने इसे आर्वेलेयिन अर्थ दे दिया है। वे खुल कर, वह भी सुप्रीम कोर्ट में कह रहे हैं कि अज्ञात विदेशी दानदाताओं के लिए भी काम करना समय की सच्चाई है, जिस में पारदर्शिता की झक नहीं पालनी चाहिए। लेकिन, तब यह चौकीदारी होगी या चकारी? क्योंकि छिपाई वही चीज जाती है, जिसे उचित न ठहराया जा सके!

पहली बार भाजपा-भक्तों को साँप सूँघ गया है। असुविधाजनक बातों के जिक्र पर गाली-गलौज पर उतर आने वाले भी इस पर मौन हैं। टी.वी. पर भाजपा प्रवक्ता इस के बचाव में एक शब्द न बोल सके। सिवा यह कि वे इसी को पारदर्शी चंदा लेना बताते रहे।

परन्तु भारत के चुनाव आयोग ने गत 25 मार्च सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि यहाँ राजनीतिक दलों को मिलने वाले देशी-विदेशी चंदे में पारदर्शिता घटी है। यही नहीं, गत वर्ष वित्तीय कानून में किए बदलावों के कारण विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय राजनीति प्रभावित हो सकती है।

चुनाव आयोग के अनुसार चालू चुनावी बॉन्ड द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा वाली व्यवस्था के गंभीर परिणाम संभव हैं। क्योंकि दलों को ऐसे चंदे का विवरण न देने की छूट दे दी गई है। इसलिए यह जानना असंभव है कि उन्होंने जन-प्रतिनिधित्व कानून के अनुच्छेद 29-बी का उल्लंघन किया या नहीं, जिस में राजनीतिक दलों को सरकारी कंपनियों और विदेशी स्त्रोतों से चंदा लेने की मनाही है! यह सब चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को भी पिछली मई ही बता दिया था।

आयोग ने 2016 ई. के वित्तीय कानून में लाए बदलाव को भी अनुचित माना, जिस से उन विदेशी कंपनियों द्वारा यहाँ राजनीतिक दलों को चंदा देने का रास्ता खोला गया, जो भारतीय कंपनियों में बड़ी साझेदारी रखती हैं। आयोग के अनुसार, इस से यहाँ राजनीतिक दलों को अबाध विदेशी धन लेने की अनुमति मिली। निस्संदेह, यह विदेशियों द्वारा भारतीय नीतियों को प्रभावित करेगा। यह सब कोई एकाएक नहीं हुआ। कुछ वर्षों से व्यवस्थित रूप से प्रबंध किया जा रहा है कि राजनीतिक दलों को किसी भी तरह का हिसाब देने से मुक्त कर दिया जाए। उन्हें सूचना के अधिकार कानून दायरे से बाहर रखना भी ऐसा ही एक बड़ा कदम था।

फिर, चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को मार्च 2018 में यह भी लिखा कि कई राजनीतिक दल अपना अधिकांश चंदा प्रति स्त्रोत बीस हजार रू. से कम बता रहे हैं, जिन दाताओं के बारे में बताना जरूरी नहीं रखा गया है। ऐसे चंदे की सीमा दो हजार बाँधने का सुझाव आयोग ने दिया था, जिस पर कार्रवाई नहीं हुई।

यह सभी बातें साफ कर देती हैं कि राजनीतिक दल अपने लिए भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार-सा हासिल कर चुके है। यानी, चोरी और सीनाजोरी! यह तो अवैध उगाही की खास चौकी बनाने जैसी बात हुई। क्योंकि सामान्य नागरिकों, कर्मचारियों, दुकानदारों से तो एक-एक पाई का हिसाब देने की व्यवस्था कड़ी से कड़ी होती जा रही है। तब राजनीतिक दलों को देशी-विदेशी स्त्रोतों से कितना भी पैसा लेने, और उसे कैसे भी खर्चने की छूट का क्या मतलब है?

कोई किसी को यूँ ही पैसा नहीं देता। वह भी सैकड़ों करोड़ रूपये। देशी-विदेशी कंपनियाँ, और एजेंसियाँ हमारे राजनीतिक दलों को चुपचाप धन क्यों देंगी? केवल अपने-अपने लाभ के लिए। जो वित्तीय होने के साथ-साथ यहाँ राजनीतिक प्रभाव, और कुचक्र चलाने से भी संबंधित होगा ही। यहाँ पहले ही सोवियत के.जी.बी., अमेरिकी सी.आई.ए., विदेशी चर्च-मिशनरी और सऊदी-इस्लामी वित्तीय स्त्रोतों से भारतीय समाज व राजनीति को भयंकर दुष्प्रभावित करने के प्रमाणिक विवरण मौजूद हैं।

ऐसी स्थिति में उसे रोकने के बदले, उल्टे नए-नए तरीके खोलने की व्यवस्था करना बेहद विचित्र है। हमारे आम राजनीतिकर्मियों, नेताओं का स्तर देखते हुए संभावित गड़बड़ी के पैमाने का अनुमान ही किया जा सकता है। चतुर देशी-विदेशी लोग हमारी कमजोरियों, अज्ञान, और भोलेपन का उपयोग कर हमारे बिन जाने भी अपने काम निकालते रहे हैं।

अतः यदि देश को संगठित भ्रष्टाचार, और विदेशी हस्तक्षेपों से मुक्त करना है, तो सब से पहले राजनीतिक दलों को कड़ी मर्यादा में बाँधना होगा। चुनाव आयोग का हलफनामा दिखाता है कि दलों ने अपने को धन संबंधी भ्रष्टाचार के लिए आजाद कर लिया है। तब उन की अन्य गतिविधियों के बेलगाम हो सकने की कल्पना ही कीजिए। वे अपने को किसी भी नैतिकता, या नियम-कानून से ऊपर मानते हैं। यहाँ राजनीतिक प्रणाली में जन्मी, और फैलती हुई अधिकांश गड़बड़ियाँ इसी से निकली हैं।

यह दलील झूठी है कि चुनाव लड़ने के लिए उन्हें हजारों करोड़ रूपयों की जरूरत है। सो, यह सब वे लाचारी में करते हैं। चुनाव आयोग एक झटके में आम चुनाव को सत्यनारायण-कथा या देवी-जगराता जैसे सस्ते, आडंबरहीन आयोजन में बदल सकता है। जैसे इंग्लैंड, अमेरिका, आदि देशों में है। चूँकि सभी दलों को एक जैसा सरल, संक्षिप्त, और शान्त चुनाव-प्रचार करना होगा, इसलिए किसी आपत्ति या पक्षपात का प्रश्न ही नहीं उठेगा।

यह नितांत आवश्यक है कि राजनीतिक दलों को तमाम विशेषाधिकारों से वंचित कर दिया जाए, जो इन्होंने समय के साथ अनुचित रूप से हथिया लिए हैं। न केवल सार्वजनिक जीवन, बल्कि संसद के अंदर भी! यह सब अविलंब खत्म होना चाहिए। वरना आगे भयंकर अनिष्ट संभव है। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट, दोनों को समय रहते स्थिति की गंभीरता समझनी चाहिए।

(साई फीचर्स)

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