सलाम, मोदी – शाह की इच्छाशक्ति को!

 

 

(बलबीर पुंज)

स्वतंलत्र भारत में जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था, वह आखिरकार विगत 5 – 6 अगस्त को हो गया। पिछले एक हजार वर्षों से भारत की सनातन और बहुलतावादी संस्कृति, पराजित मानसिकता की पराधीन रही है। उसी चिंतन से जनित अनुच्छेद 370 रूपी विकृत श्रृंखला को अब तोड़ दिया गया है, जिसके लिए भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने प्राणों की आहुति तक दे दी थी। वास्तव में, उनका एक विधान, एक प्रधान का संकल्प मोदी सरकार ने पूरा किया है।

इस साहसिक कदम को उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी, जिसकी कमी पिछले सात दशकों से देखी जा रही थी। सच तो यह है कि अनुच्छेद 370 के संवैधानिक क्षरण ने अपने साथ उस सात दशक पुराने मिथक को भी जमींदोज कर दिया है, जिसमें देश के एक वर्ग द्वारा दावा किया जा रहा था कि इसे निरस्त करना असंभव है। क्या यह सत्य नहीं कि अनुच्छेद 370 अस्थायी प्रावधान था और उसमें ही इसे संवैधानिक रूप से निरस्त करने की वैधानिक पद्धति मौजूद थी?

वर्ष 1947 को स्वतंत्रता के बाद में जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश में 560 रियासतों (हैदराबाद और जूनागढ़ सहित) का एकीकरण किया था, उस मूल्य का पं.नेहरू में भारी आभाव था। उनके अदूरदर्शी दृष्टिकोण और आत्ममुग्धता ने कश्मीर मामले को उलझाए रखा – परिणामस्वरूप, 1962 में चीन के हाथों भारत को शर्मनाक पराजय भी झेलनी पड़ी।

क्या यह श्रीमती इंदिरा गांधी की राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिणाम नहीं था कि उनके नेतृत्व ने 1971 में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट दिया, जिसमें एक नए राष्ट्र – बांग्लादेश का जन्म हुआ? क्या यह सत्य नहीं कि मई 1998 में पोखरण स्थित परमाणु परीक्षण भी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और साहसिक व्यक्तित्व का फल था? यह परीक्षण तो पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव भी करना चाहते थे, किंतु उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और अमेरिकी दवाब के समक्ष घुटने टेक दिए। पिछले पांच वर्षों में देश की अखंडता और सुरक्षा की खातिर सीमापार भारतीय सेना का 2015 में म्यांमार, 2016 में गुलाम कश्मीर, 2019 में बालाकोट और फिर म्यांमार में सर्जिकल स्ट्राइक – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक इच्छाशक्ति का ही जीवंत प्रमाण है। अब उस कड़ी में अनुच्छेद 370 का क्षरण भी जुड़ गया है।

कश्मीर संबंधित घटनाक्रम पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया और स्थिति सर्वाधिक विचित्र दिख रही है। पार्टी का एक पक्ष इस विवादित धारा को हटाए जाने को राष्ट्रहित में बता रहा है, जबकि दूसरे वर्ग इसका पुरजोर विरोध कर रहा है। कांग्रेस में विरोधी स्वर की कमान स्वयं गांधी परिवार के हाथों में है। पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने तो एक कदम आगे बढ़ाते हुए कश्मीर पर देश की घोषित राष्ट्रीय नीति पर प्रश्नचिन्ह ही खड़ा कर दिया। उन्होंने लोकसभा में कह दिया, कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में है और वह इसका निरीक्षण कर रहा है, तो इस पर सरकार कैसे बिल ला सकती है। यह नहीं, उन्होंने कहा, जब कश्मीर भारत और पाकिस्तान का द्विपक्षीय मुद्दा है, तो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह इसे आंतरिक मामला कैसे बता रहे है।

गांधी परिवार के परोक्ष नेतृत्व में कांग्रेस की उपरोक्त स्थिति तब है, जब स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकसभा में अनुच्छेद 370 को अस्थाकयी प्रबंध बताते हुए इसे खत्म करने की बात कह चुके थे। 27 नवंबर 1963 को लोकसभा में चर्चा करते हुए बतौर प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने कहा था, अनुच्छेद 370 के क्रमिक क्षरण की प्रक्रिया चल रही है। इस संबंध में कुछ नए कदम उठाए जा रहे हैं और अगले एक या दो महीने में उन्हें पूरा कर लिया जाएगा। स्पष्ट है कि यदि पं.नेहरू कुछ समय और जीवित रहते, तो वे इसे अपने शासनकाल में ही हटा चुके होते। यही नहीं, पं.नेहरू के निधन उपरांत कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने गुलजारीलाल नंदा ने भी 4 दिसंबर 1964 को लोकसभा में भाषण देते हुए कहा था, धारा 370 को चाहे आप रखें या न रखें, इसकी सामग्री को पूरी तरह से खाली कर दिया गया है। इसमें कुछ भी नहीं छोड़ा गया है। हम इसे एक दिन, 10 दिनों या 10 महीने में विनियमित कर सकते है और इस पर विचार हम सभी ही करेंगे। संविधान निर्माता और भारत के पहले कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर भी अनुच्छेमद 370 के धुर विरोधी थे। उन्होंने तो इसका प्रारुप तैयार करने से भी इनकार कर दिया था।

आखिर अनुच्छेद 370 पर पं.नेहरू के देश से किए वादे का अनुसरण करने से कांग्रेस क्यों बच रही है? वर्तमान समय में इस विभाजनकारी अनुच्छेद के प्रति कांग्रेस के विकृत दृष्टिकोण का एकमात्र कारण वह विदेशी वामपंथी विचारधारा जिम्मेदार है, जिसकी बौद्धिक – सेवा को इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने के लिए 1970 दशक में आउटसोर्स कर लिया था और जिसकी जकड़ से पार्टी अभी तक मुक्त नहीं हो पाई है या यूं कहे कि वह मुक्त ही नहीं होना चाहते। टुकड़े – टुकड़े गैंग और भारत तेरे टुकड़े होंगे नारे को कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का समर्थन, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

भ्रम फैलाया जा रहा है कि अनुच्छेसद 370 ही कश्मीर को भारत से जोड़ता है – अर्थात्, इस धारा के क्षरण से कश्मीर का भारत से संबंध – विच्छेद हो जाएगा। क्या इससे बड़ा कोई झूठ और हो सकता है? स्वतंत्रता के समय तत्कालीन भारत सरकार और जम्मू – कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के बीच 26 – 27 अक्टूबर 1947 को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन अनुबंधित हुआ था। इस संधिपत्र का प्रारुप (फुल स्टाप, कोमा आदि सहित) हूबहू वही था, जिसके माध्यम से उस समय 560 शासकों ने भारत में अपने रियासत का औपचारिक विलय किया था। जबकि 17 अक्टूबर 1949 के दिन अनुच्छेद 370 को संविधान में पं.नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के दवाब में आकर और बाबा साहेब अंबेडकर, सरदार पटेल और तत्कालीन कांग्रेस कार्य समिति के विचारों की अवेहलना करते हुए रखवा दिया था। इसी तरह, 14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा पारित एक आदेश के माध्यम से धारा 35ए को संविधान में शामिल करा दिया, जिसकी चर्चा संविधान सभा में कभी नहीं हुई थी। वास्तव में, यह दोनों प्रावधान भारत और कश्मीर के संबंधों को पिछले सात दशकों से क्षरण कर रहे थे, जो पं.नेहरू की तुष्टिकरण नीति का परिणाम थी।

महाराजा हरिसिंह के पुत्र, कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 9 मार्च 1931 को जब उनका जन्म हुआ, तब श्रीनगर में उत्सवमयी वातावरण था। यह सूचक है कि उस समय सद्भाव से भरा माहौल था। स्थिति तब बिगड़ी, जब उसी वर्ष अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की विषाक्त और जिहादी भट्टी में तपकर, घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला कश्मीर वापस लौटे थे। उस समय शेख को अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु पं.नेहरू का सहयोग मिल रहा था। कहने को तो शेख का आंदोलन राजशाही के खिलाफ था, किंतु बाद के घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया कि उनका अभियान काफिर – कुफ्रों के खिलाफ जिहाद का एक हिस्सा था। पिछले सात दशकों में उसी रूग्ण चिंतन के कारण ही शेष भारत से कश्मीर निरंतर दूर होता चला गया।

सच यह भी है कि अनुच्छेद 370 की आड़ में ही शासन – व्यवस्था द्वारा कश्मीर के बाद जम्मू और लद्दाख क्षेत्र की जनसंख्याकीय संरचना को प्रभावित किया गया। आज स्थिति यह हो गई कि जो लद्दाख सैकड़ों वर्षों से बौद्ध बहुल रहा था, उसका मूल बहुलतावादी चरित्र बदल चुका है। 2011 की जनगणना के अनुसार, वहां की कुल जनसंख्या 2.75 लाख है, जिसमें मुस्लिम बढ़कर 46 प्रतिशत, तो बौद्ध घटकर 39 प्रतिशत हो गए है। कश्मीर, जो पहले वैदिक संस्कृति, फिर बौद्ध और शैव मत के केंद्र के रूप में विकसित हुआ – उसमें 13वीं – 14वीं शताब्दी को इस्लाम के आगमन के बाद निरंतर बदलाव आना शुरू हो गया और कालांतर में कश्मीर पंडितों को पलायन के लिए बाध्य करने के उपरांत घाटी की लगभग शत – प्रतिशत आबादी मुस्लिम हो गई, जिसका एक बड़ा वर्ग काफिर भारत और हिंदुओं के लिए मौत की दुआ मांगता है।

अनुच्छेद 370 हटने के बाद घाटी में क्या परिवर्तन आने की संभावना है? इस धारा के क्षरण के तुरंत बाद प्रदेश में तिरंगा एकमात्र ध्वज होगा, दोहरी नागरिकता खत्म होगी, महिला अधिकारों को पूर्ण संरक्षण मिलेगा, शेष भारत की भांति जम्मू – कश्मीर में भी भारतीय दंड संहिता व आरक्षण व्यवस्था मान्य होगी और देश का प्रत्येक नागरिक कश्मीर में संपत्ति भी खरीद सकेगा। सच तो यह है कि इस धारा ने ही कश्मीर को भारत से काटने के साथ – साथ घाटी में आतंकवाद और जिहाद जड़ों को मजबूती देने का काम किया है। इसके खात्मे के बाद पाकिस्तान जिस काफिर – कुफ्र की अवधारणा को अपने पालतू अलगाववादियों के माध्यम से सुलगा रहा था, उसपर मोदी सरकार को सीधे लगाम लगाने में सहायता मिलेगी। इसके अतिरिक्त, दशकों से जिस प्रकार भारी – भरकम वित्तीय अनुदान भारत सरकार द्वारा कश्मीर में भेजा जा रहा था, जिसके एक बड़े हिस्से से चंद परिवारों ने सत्तासीन होने पर अपनी जेबें भरी, देश – विदेश में अकूत संपत्तियां अर्जित की और भ्रष्टाचार को बढ़ाया दिया, तो शेष राशि से उन्होंने घाटी में जिहादी जमीन को उर्वर करते हुए जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के इस्लामीकरण की कोशिश को भी गति प्रदान की।

आशा है कि जम्मू – कश्मीर के संबंध में हुए संवैधानिक परिवर्तन के बाद वहां की रुग्ण व्यवस्था में भी आमूलचूल परिवर्तन आएगा। साथ ही शेष भारत की भांति घाटी भी बहुलतावादी संस्कृति और परंपराओं को अंगीकार करेगा।

(साई फीचर्स)