सुप्रीम कोर्ट से शुरुआतः बदल रही है सजाओं की शक्ल

 

 

(रवि पाराशर)

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक अपराधी की कविताओं से प्रभावित होकर उसकी फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी। कोर्ट ने सजा कम करने के लिए कई और आधारों पर भी विचार किया, लेकिन सजायाफ्ता की कविताओं ने उसके निर्णय पर सबसे ज्यादा असर डाला। सुनने में यह अजीब फैसला लग सकता है, लेकिन गंभीरता से देखें तो न्यायालय का यह फैसला अपराध होने पर भारतीय संविधान, भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता यानी एक निश्चित विधि-विधान के अंतर्गत निष्पक्ष न्याय और सकारात्मक पश्चाताप के बाद मानवीय न्याय की गुंजाइश को रेखांकित करता है।

गौरतलब है कि पुणे की एक अदालत ने एक बच्चे का अपहरण करने के बाद उसकी हत्या के दोषी डी. सुरेश बोरकर को 18 साल पहले फांसी की सजा सुनाई थी। बॉम्बे हाई कोर्ट ने वर्ष 2006 में निचली अदालत के फैसले पर मुहर लगाते हुए मौत की सजा बरकरार रखी। मगर अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जल्द ही बोरकर की रिहाई की संभावना बढ़ गई है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि दोषी ने यह जघन्यतम अपराध कम उम्र में किया था, लेकिन उसे अब पछतावा है। वह सुधरना चाहता है, इसलिए न्यायिक प्रक्रिया के तहत उसकी जान लेने की बजाय उसे समाज की मुख्यधारा में वापस लौटने का अवसर दिया जाना चाहिए।

यह फैसला कई सवाल भी खड़े करता है। क्या अपराधी का सकारात्मक हृदय परिवर्तन हर मामले में सजा कम करने का ठोस आधार बन सकता है? प्रश्न यह भी है कि समाजोपयोगी विषयों पर पूरी संवेदनशीलता के साथ कविताएं लिखने वाला कोई स्थापित या अनजाना सहृदय कवि अगर संगीन अपराध कर बैठे तो क्या उसे कम सजा दिए जाने की कोई संभावना बनती है? एक सवाल यह भी कि अच्छे चाल-चलन के साथ ही अर्थपूर्ण कविताएं लिखने लगना क्या सजा कम करने का आधार माना जा सकता है?

अच्छे चाल-चलन की परिभाषा आखिर है क्या? पहला ही अपराध अगर अधिकतम यानी फांसी की सजा दिलाने वाला हो तो जेल में अच्छे चाल-चलन के ढोंग के आधार पर ऐसा हर अपराधी सजा कम करने की जुगत क्यों नहीं करेगा? आखिर मामला मौत की सजा का है। जीवित रहने के लिए दोषसिद्ध व्यक्ति किसी भी हद तक जाकर छल कर सकते हैं।

झारखंड के दुमका जिले में तीन साल की बच्ची से रेप के बाद उसके हत्या के दोषी को पिछले साल अक्टूबर में निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई। अपराधी की उम्र 25 साल है। इसी साल फरवरी में झारखंड के ही गुमला जिले में तीन साल की बच्ची के रेप और हत्या के दोषी को फांसी की सजा सुनाई गई है। बलात्कार निरोधक कानून को कड़ा कर दिए जाने के बाद देश भर से मृत्युदंड के फैसलों की खबरें काफी संख्या में आ रही हैं। तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला क्या ऐसे सभी अपराधियों के लिए नजीर बनेगा? जवाब यही हो सकता है कि हर अदालत हर केस की विवेचना अलग-अलग आधारों पर करती है। कोई भी फैसला अंतिम नजीर नहीं बन सकता। यह भारतीय दंड व्यवस्था की खूबी भी है।

पिछले दिनों छोटी-मोटी धाराओं में दर्ज मुकदमों में निचली अदालतों के कई सुधारवादी फैसले भी चर्चा में हैं। पिछले महीने महाराष्ट्र में बीड जिले की एक अदालत ने सरकारी काम में बाधा डालने के सात आरोपियों को सजा सुनाई कि वे एक साल तक महीने में दो बार संबंधित थाने की सफाई करें और पेड़-पौधों की देखभाल करें। महाराष्ट्र में ही रेलवे ऐक्ट के तहत पकड़े गए तीन युवकों को वसई रेलवे स्टेशन की तीन दिनों तक सफाई करने की सजा पिछले साल अगस्त में सुनाई गई। इसी तरह पिछले साल 17 नवंबर को गुजरात की एक अदालत ने 2009 में शराब पीते और जुआ खेलते पकड़े गए एक डिप्टी तहसीलदार को एक महीने तक अस्पताल की सफाई करने की सजा सुनाई थी।

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर का भी एक मामला चर्चा में है। नौ साल की उम्र में थप्पड़ मारने और जातिसूचक गालियां देने के एक आरोपी को 22 साल बाद दिसंबर, 2017 में एक महीने तक स्वास्थ्य केंद्र की सफाई की सजा मिली। ऐसे हालिया फैसलों की एक लंबी सूची है। इस तरह के किसी दंड का प्रावधान भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में नहीं किया गया है, लेकिन अदालतें अपने विवेक से ऐसी सजाएं सुना रही हैं। यह जजों का अपना ऐक्टिविज्म है। तर्क यह है कि सजा का उद्देश्य अपराधी को सलाखों के पीछे डालना ही नहीं, बल्कि उसके अंदर सुधार के प्रयत्न करना भी है।

जघन्य अपराधों के लिए ऐसी सुधारात्मक सजा नहीं सुनाई जा सकती, लेकिन जिन मामलों में समाज का कोई नुकसान नहीं हो रहा हो उनमें अपराधी को जेल भेजने की बजाय नरम सजाएं सुनाई जाएं। दिल्ली के एक जज तो छोटे मामलों में जमानत देने के लिए भी साफ-सफाई की शर्त लगाने के लिए चर्चित हैं। इसी तरह ट्रैफिक नियम तोड़ने के कुछ दोषियों को कुछ दिनों तक ट्रैफिक व्यवस्था संभालने की सजा सुनाई जा चुकी है। ऐसी सजाओं के पीछे मान्यता यह होती है कि इससे समाज का लाभ होगा और नियम तोड़ने वाला आगे से ऐसा नहीं करेगा।

छोटे-मोटे मामलों में सामाजिक संदेश देने वाली सजा सुनाना क्या अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए/ इस पर बहस शुरू करने की जरूरत है। लेकिन एक ठोस तर्क यह भी है कि अगर ऐसा प्रावधान बाकायदा कर दिया जाएगा, तो फिर लोग बहुत सी सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए तय नियमों को गंभीरता से लेना बंद कर देंगे। अपराधी डरेगा तभी, जब उसे समाज से काट कर जेल में डालने का प्रावधान होगा। जो भी हो, अपराध और दंड पर देश में कुछ बात तो शुरू हो ही गई है।

(साई फीचर्स)