(शंकर शरण)
कल्पना करें, इस लोक सभा चुनाव में भाजपा को दौ सौ सीटें मिलतीं, और कुल परिणाम ऐसे होते कि यूपीए या किसी मोर्चे की सरकार बनती दृ तो अभी क्या विश्लेषण हो रहा होता? पूरे विश्वास से लिखा जाता कि किन-किन कारणों से भाजपा ने अपना जनादेश गँवा दिया, कि ये तो होना ही था, आदि आदि। उस के लिए उदाहरणों, घटनाओं और तर्कों की कोई कमी न होती। यह विश्लेषण वही लोग करते जो अभी भाजपा की जीत का कर रहे हैं। किसी को समय, टीम और संसाधन लगाकर देशव्यापी शोध कर ठोस कारणों, तथ्यों की खोज करने की फिक्र न होती। जैसे अभी नहीं हो रही है। सभी बैठे-बैठे ही तमाम तथ्य तर्क दे रहे हैं।
गर्ज यह कि परिणाम देख कर इन्सटैंट विश्लेषण की कोई उपयोगिता नहीं। विभिन्न लोग विविध कारणों से किसी को वोट देते या नहीं देते हैं। इस के अतिरिक्त, कई चीजें किसी पार्टी को लाभ या हानि पहुँचाती हैं। अतः जब तक बड़े पैमाने पर प्रमाणिक तथ्य न इकट्ठा किए जाएं, तब तक परिणामों का कारण बताना केवल अनुमान है।
इसलिए, अपने-अपने अनुमान से इसे मोदी की, आर.एस.एस. संगठन की, धन बल और अंधाधुंध प्रचार की, माइक्रो-बूथ-प्रबंधन की, गरीबों के लिए काम, बालाकोट संयोग, विकल्पहीनता, हिन्दुत्व, अथवा इन सब में कई तत्वों के सामूहिक प्रभाव की जीत कहा जा सकता है। कोई निष्कर्ष पूरी तरह गलत न होगा। किन्तु कौन सा निर्णायक तत्व था? यह रामजी ही जानते हैं! क्योंकि वास्तविक सामाजिक अध्ययन और शोध हमारे देश में बहुत पहले बंद हो गया। उस के नाम पर अधिकांश अपने-अपने पसंद का मतवादी प्रचार या खानापूरी होती है।
जो लोग इस परिणाम को हिन्दू सभ्यता-संस्कृति के पुनर्जीवन का ऐतिहासिक मोड़ मानते हैं – ईश्वर करे वे सही हों। किन्तु अभी यह संभावना मात्र है। हिन्दू धर्म-संस्कृति से संघ-भाजपा की सहानुभूति सच्ची है। पर इस के शत्रुओं से हर मोर्चे पर लड़ सकने की उन की योग्यता संदिग्ध है। वे शत्रु अनेक बातों में आज भी अधिक सक्षम हैं। अतः खत्म होना दूर, वे पूरी तरह बेबस भी नहीं हुए। किसी भी संयोग से वे पुनः प्रबल हो सकते हैं, क्योंकि भारत में चुनावी जीत किसी आकस्मिक घटना-दुर्घटना तक से प्रभावित हो जाती है।
पिछले पाँच वर्षों में भी धर्म-संस्कृति शत्रुओं/विरोधियों का ही शैक्षिक, कानूनी, बौद्धिक दबदबा रहा। इस बीच भाजपा सत्ता ने जो भी काम किए, उसे कोई अन्य पार्टी भी कर सकती थी। उन कामों में कोई बुनियादी रूप से भिन्न सैद्धांतिक बात नहीं थी। व्यापार, जन-सुविधा, रोजमर्रे के कामों से हिन्दू सभ्यता-संस्कृति के पुनर्जीवन का संबंध नहीं है। उन कामों में भी अपराध नियंत्रण और पुलिस-दक्षता में सुधार जैसे बुनियादी क्षेत्र को नहीं लिया गया। फलतः समाज में सज्जन व दुर्जन लोगों की स्थितियों में पहले से कोई विशेष अंतर नहीं आया है। फिर भी, गैस, शौचालय, राजमार्ग, आदि योजनाओं से लाखों गरीबों को लाभ हुआ, यह प्रसन्नता की बात है। पर वे हमारी सभ्यता-संस्कृति को पहुँचाए गए घाव को भरने से जुड़े काम नहीं थे। इस की सफाई में दी जाती दलीलें सच भी हों (जो वे नहीं है), तब भी निष्कर्ष हुआ कि मूल विवादी प्रश्नों पर हिन्दू-विरोधी मतवादों की ही सत्ता यथावत् रही। यहाँ तक कि उन के कई अनुष्ठान भाजपा सत्ता ने भी बेवजह और कई बार दुहराए!
अतः चुनावों में संघ-भाजपा का बढ़ा दबदबा सतही है। उस ने कहीं भी हिन्दू-विरोधी स्थापनाओं को सारतः विस्थापित नहीं किया है। शिक्षा का राजनीतिकरण खत्म करने की पहल नहीं की। ओपेड पन्नों से लेकर विश्वविद्यालयों, अकादमियों में कोई विषय-परिवर्तन न दिखा, जो पूरे मामले की एक कसौटी है। अधिकांश बगीचों में केवल माली बदले, जबकि हर कहीं कँटीले झाड़-झंखाड़ और विषैली बेलें वैसी ही लगी रहीं। उन्हें हटाकर पौष्टिक सुंदर फल-फूलों के पेड़-पौधे लगाने की इच्छा न दिखी।
इसीलिए, भाजपा की लोक सभा सीटें बढ़ना केवल एक संभावना जगाती है। यह वास्तविकता बनेगी या नहीं, इस का उत्तर विवेक से ढूँढें। हिन्दू-विरोधी मतवादों, और उन की स्थापित दुर्नीतियों को बदलने का काम आमूल बाकी है। उस दिशा में न कोई कदम उठा, न वैसा संकेत है। चुनाव परिणाम के बाद भी सारी बातें पार्टी-केंद्रित और अगले चुनाव के दृष्टिगत हैं। शेष उपदेशात्मक, जिन से कोई नीति-दिशा या कर्म-योजना की झलक नहीं मिलती।
केवल सही नीयत की दिलासा दी गई है। एजेंडा अभी भी रहस्य है। अतः पहले जैसे बेतरतीब, आकस्मिक, और प्रचारात्मक काम होते रह सकते हैं। लोग उन्हें पुनः स्वीकार भी कर लें, तो यह सब कोई सभ्यतागत पुनर्जीवन वाली दिशा नहीं है। यदि कुछ है, तो कोई भारी कमी ही। जिसे सदिच्छा और विकल्पहीनता में अनदेखा भले करें, उस से निर्णायक परिवर्तन हो जाने की आशा दम-दिलासा ही है।
निस्संदेह, संघ-भाजपा की सत्ता प्रायः हर वर्ग, समुदाय के लिए बेहतर स्थिति है। लोग भारतीय भाषा, शिक्षा, संस्कृति क्षेत्र में समुचित काम कर सकें, इस के लिए यह अनुकूल स्थिति कही जा सकती है। पर क्या संघ-भाजपा इस के लिए समाज को प्रोत्साहन देने को तैयार हैं? इस का उत्तर आसान नहीं। क्योंकि कम्युनिस्टों की तरह संघ-परिवार में भी एकाधिकारी प्रवृत्ति है, जो स्वतंत्र सामाजिक कामों और कर्ताओं को उपेक्षा या संदेह से देखती है। उसे किसी न किसी तरह अपने नियंत्रण में चलाना चाहती है। यद्यपि यह हिन्दू धर्म-संस्कृति की शिक्षा के विरुद्ध है। हिन्दू परंपरा में ज्ञानियों से राजा मार्गदर्शन लेता था, न कि उलटा। हिन्दू व्यवस्था में धर्म आर्थिक गतिविधियों से ऊपर और स्वतंत्र है। अतः शौचालय को देवालय की तुलना में, वह भी ऊँचा, रखना वामपंथी मानसिकता है।
अनेक वक्तव्यों, गतिविधियों, आदतों, आदि से लगता है कि संघ-भाजपा ने अपने को वामपंथियों का प्रतिरूप बना लिया है। उन के नेता-कार्यकर्ता एकम् सत्, विप्राः बहुधा वदन्ति नियमित बोलते हैं। किन्तु व्यवहार में कम्युनिस्टों जैसे ही केवल संघ-विचार का ही प्रभुत्व चाहते हैं। वह भी शास्त्रार्थ से नहीं, वरन छल-बल-कपट से। वे हिन्दुत्व से बढ़कर संघत्व को, अथवा दोनों को समानार्थक समझते हैं। यह घोर अज्ञान, और धर्म को ही भूल जाने समान है! संघ-भाजपा के आम नेता, कार्यकर्ता अपने काम, चरित्र या व्यवहार की कसौटी किसी हिन्दू शिक्षा को नहीं बनाते। फलस्वरूप व्यवहारतः धर्म पीछे चला जाता है, और संगठन का यांत्रिक काम ऊपर बना रहता है। राजनीति, पार्टी, चुनाव, दिखावा, प्रचार, आदि पर इतना जोर उसी की व्युत्पत्ति है। संघ-भाजपा की यह प्रवृत्ति हिन्दू-विरोधियों के लिए ही अनुकूल रही है। दुर्भाग्यवश, संघ-भाजपा में बिरले लोग ही इसे समझते भी है। वे अपनी पार्टी-बंदी, तथा नीति-विरुद्ध कदमों, दिखावों, आदि को अपनी चतुराई या तात्कालिक विवशता मानते हैं।
इसीलिए, चाहे भारतीय मतदाताओं के एक वर्ग ने संघ-भाजपा को हिन्दुत्व के लिए मत दिया हो, किन्तु यह अपने आप में धर्म-समाज की सुरक्षा की गारंटी नहीं। संघ-भाजपा की बढ़ती संख्या केवल उतना ही दर्शाती हैः उन की संख्या। उस संख्या-वृद्धि को धर्म-वृद्धि समझना भूल होगी। सो यह चुनाव हमारी सभ्यता-संस्कृति के पुनर्जीवन के लिए कोई मोड़ है या नहीं, यह देखना अभी शेष है।
(साई फीचर्स)

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