(अजित द्विवेदी)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में प्रचार करते हुए रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोगों से कहा कि वे यह नहीं देखें को उनको लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार कौन है। वे सीधे मोदी के लिए वोट करें। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ओड़िशा में लोगों से कहा कि वे कमल के निशान के सामने बटन दबाएं और वोट सीधे मोदी को मिल जाएगा। उनके कहने का भी वहीं मतलब था, जो निर्मला सीतारमण का था – यह मत देखो की तुम्हारा उम्मीदवार कौन है। ये दो प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे यह संकेत मिलता है कि यह चुनाव अगर पूरी तरह जनमत संग्रह की तरह नहीं तो अर्ध जनमत संग्रह की तरह लड़ा जा रहा है।
कहने को कहा जा सकता है कि पिछली बार भी भाजपा ने ऐसे ही चुनाव लड़ा था। तब भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और भाजपा मोदी सरकार के लिए वोट मांग रही थी। तभी पिछले पांच साल तक केंद्र सरकार को मोदी सरकार ही कहा गया। पर असल में तब और अब के चुनाव में एक बारीक फर्क है। तब मोदी को पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया था और पार्टी ने चुनाव लड़ा था। पार्टी के तमाम पुराने और मजबूत नेताओं ने, जिन्होंने भाजपा को बनाने में भूमिका निभाई थी, वे सब चुनाव लड़े थे। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और दूसरे हिंदू संगठनों की बड़ी और सक्रिय भूमिका थी।
केंद्र में मोदी सरकार बनी थी तो वह भाजपा ने बनवाई थी। जैसे उससे पहले दस साल तक मनमोहन सरकार थी, पर उसे सोनिया गांधी और कांग्रेस ने बनवाई थी। जैसे राज्यों में भाजपा की सरकारों को मुख्यमंत्रियों के नाम से जाना जा रहा है पर असल में उनकी सरकार मोदी और शाह ने बनवाई है। वैसे ही केंद्र की मोदी सरकार भाजपा और संघ ने बनवाई थी। इस बार का इससे अलग है। इस बार भाजपा और संघ लड़ाई में नहीं हैं। भाजपा के तमाम पुराने नेता घर बैठा दिए गए हैं।
पिछली बार यह कहने की जरूरत नहीं थी कि उम्मीदवार को मत देखो क्योंकि तब अपने दम पर चुनाव जीतने की क्षमता रखने वाले पुराने और मंजे हुए नेता भी चुनाव लड़ रहे थे। इस बार यह कहा जा रहा है कि उम्मीदवार मत देखो तो इसका मतलब है कि देखने लायक उम्मीदवार नहीं उतारे गए हैं। इस बार बिजली के खंबे या मोम के पुतले चुनाव मैदान में हैं। तभी पिछली बार का चुनाव एक संसदीय प्रणाली वाला लोकतांत्रिक चुनाव था और इस बार एक व्यक्ति के नाम पर लड़ा रहा जा अध्यक्षीय प्रणाली का चुनाव है।
यह अच्छा है, जो विपक्ष नरेंद्र मोदी के इस जाल में नहीं फंसा है। विपक्ष ने राष्ट्रपति प्रणाली की तरह या जनमत संग्रह की तरह चुनाव लड़ने से इनकार किया है। उनकी ओर से कोई चेहरा नहीं प्रोजेक्ट किया गया और न आमने सामने की लड़ाई यानी वन ऑन वन मुकाबला बना है। विपक्ष अपनी फितरत में बंटा हुआ, बिखरा हुआ है। विपक्षी पार्टियां मनमाने तरीके से चुनाव लड़ रही हैं। उनका मकसद यह जरूर है कि मोदी को रोकना है पर उन्होंने चुनाव को मोदी के नाम पर जनमत संग्रह नहीं बनने दिया है। वे भाजपा से लड़ रहे हैं तो आपस में भी लड़ रहे हैं। चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार की तलाश में इधर उधर भटके भी हैं।
अब सवाल है कि क्यों मोदी और शाह ने इस चुनाव को ऐसा बनाया, जिसमें कहा जाए कि उम्मीदवार को देखने की जरूरत नहीं है? कारण बहुत स्पष्ट है। असुरक्षा बोध! पिछले चुनाव में जब भाजपा को अकेले पूर्ण बहुमत मिल गया तब भी यह बोध बना रहा था। हालांकि भाजपा की संसदीय दल की बैठक में इक्का दुक्का सांसदों ने ही विरोध में मुंह खोला। केंद्रीय मंत्रियों में नितिन गडकरी और सांसदों में शत्रुघ्न सिन्हा, नाना पटोले या भरत सिंह जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पार्टी के तमाम नेता मुंह बंद कर बैठे रहे। चूंकि भाजपा को अकेले बहुमत था इसलिए इनके विरोध से फर्क नहीं पड़ा। पर फर्ज कीजिए अगर इस बार पूर्ण बहुमत नहीं आया तो क्या होगा? फिर तो संसदीय दल की बैठक में विरोध में आवाजें उठ सकती हैं। सो, पहले ही ऐसी आवाजों को खामोश किया जा रहा है। स्वतंत्र अस्तित्व वाले कुछ लोग फिर भी लड़ रहे हैं और जीत कर आएंगे पर उनको हैंडल करने का दूसरा तरीका निकाला जाएगा।
किसी भी हाल में प्रधानमंत्री बनने की सोच में तो यह बात ठीक हो सकती है। पर लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली के लिए यह बहुत चिंताजनक है। इस तरह समूचा जनादेश एक व्यक्ति के नाम पर हासिल किया गया माना जाएगा। इससे चुने हुए प्रतिनिधियों की हैसियत आधिकारिक रूप से कठपुतली वाली हो जाएगी, जिसकी जान एक व्यक्ति में होगी। जाहिर है वे जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करेंगे उनकी भी हैसियत वैसी ही हो जाएगी। उन्हें न तो लोगों के संपर्क में रहने की जरूरत है और न क्षेत्र के लिए काम करने की जरूरत है। सारे काम एक व्यक्ति करेगा।
वहीं सारे मतदाताओं के संवाद करेगा और वहीं उनका और उनके क्षेत्र के काम करेगा। यह चुने हुए प्रतिनिधियों की जरूरत खत्म करने की दिशा में उठा पहला कदम साबित हो सकता है। दुनिया के परिपक्व और मजबूत लोकतंत्र में जन प्रतिनिधि भी बेहद मजबूत होता है और वह अपने नेता का विरोध करने की हैसियत रखता है। अमेरिका में राष्ट्रपति प्रणाली होती है फिर भी सीनेट और प्रतिनिधि सभा के मजबूत सदस्य चुने जाते हैं और वे विधायिका में अपनी ही पार्टी के राष्ट्रपति के फैसलों का खुला विरोध भी करते हैं। ब्रिटेन में भी सांसद अपनी सरकार का विरोध करते हैं। और इसलिए करते हैं क्योंकि वे किसी एक व्यक्ति के नाम पर जीत कर नहीं आते हैं। तभी वोट डालते हुए उम्मीदवार को नहीं देखने वाली बात एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत है।
(साई फीचर्स)
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