(अरविंद मोहन)
पुलवामा हादसे को बीते अभी एक महीना ही हुआ है और बालाकोट पर बमबारी को एक पखवाड़ा, पर देश-विदेश की राजनीति में इस बीच काफी कुछ घटित हो चुका। भारतीय वायुसेना का जवाब तो दिख ही गया, भारतीय कूटनीति से पाकिस्तान पर बना दबाव भी जाहिर हो गया। बालाकोट के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की भविष्यवाणी दिखी और सऊदी राजकुमार की मध्यस्थता भी। पाकिस्तान अपनी करतूतों का जवाब पा चुका है और उसके अंदरूनी विरोधाभास और झूठ दुनिया देख रही है। हम भी आपसी रिश्तों को द्विपक्षीय ढंग से निपटाने की घोषित नीति से कहां तक खिसके हैं और मजबूरी में ही सही, सीमा लांघने के फैसले तक क्यों गए हैं, यह भी विचारणीय है। पर इतना साफ है कि यह प्रकरण हिंदुस्तानी आम चुनाव में शायद उससे भी बड़े रूप में इस्तेमाल होगा, जितना पाक प्रायोजित आतंकवाद, पाकिस्तान से चलने वाली भारत विरोधी गतिविधियां या पाक प्रधानमंत्री इमरान खान की फौज और आईएसआई के सामने की विवशता।
26/11 का मुंबई हमला यूपीए शासन के समय हुआ जो पाक प्रायोजित आतंकवाद का सबसे खतरनाक रूप था। लेकिन घटना के समय या तत्काल बाद भारत सरकार ने कोई बड़ा हमला नहीं किया। हां, इस हमले से मिले सबूतों और अजमल कसाब जैसे आतंकी के सहारे पाकिस्तान को घेरने और दुनिया के सामने एक्सपोज करने में भारत ने काफी सफलता पाई। 26/11 की तुलना में कंधार, करगिल, संसद पर हमला, पठानकोट, उड़ी और पुलवामा जैसी घटनाएं बीजेपी या एनडीए शासनकाल की हैं। जबाबी कार्रवाई या एक्शन के हिसाब से देखें तो इनमें से ज्यादातर में एक्शन-रिएक्शन हुआ। करगिल में तो पाक फौज से भिड़ंत भी हुई और उसे धूल चटाई गई। फिर करगिल के शहीदों के शव धूम-धाम से जगह-जगह ले जाए गए और उनका अंतिम संस्कार हुआ, जबकि पहले मुल्क के मनोबल पर विपरीत प्रभाव के डर से फौजियों की मौत और उनके शव का मामला प्रचारित नहीं होता था।
करगिल के बाद समय से पूर्व चुनाव कराए गए और जीत भी हासिल की गई। बाकी मामलों को भी प्रबल राष्ट्रवादी भाव से जोड़कर चुनावी लाभ लेने की कोशिश हुई। साफ लगता है बीजेपी शासन के समय आतंकी कार्रवाई ज्यादा हुई, बीजेपी सरकार ने ज्यादा जवाब दिए और उन्हें भुनाया भी। असल में जिस आधार पर पाकिस्तान बना और मुल्क का विभाजन हुआ उसमें इस तरह की राजनीति के बीज छुपे थे लेकिन जनरल जिया उल हक के बाद इस सियासत ने एक अलग रूप अख्तियार किया। जिया उल हक थे तो फौजी, लेकिन उन्होंने फौज की जगह इस्लामी डेरों को धन देकर आतंकी और कट्टरपंथी फौज खड़ा करने की जो रणनीति शुरू की वह पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के और मुल्कों के भी मनमाफिक थी। जब अमेरिका को अफगानिस्तान की सोवियत समर्थित सरकार के खिलाफ अपनी फौज उतारने में झिझक हुई तो वियतनाम के तजुर्बे को ध्यान में रखते हुए उसने जिया की मदद से तालिबान को लड़ाई में उतारा।
तालिबानियों ने अफगानिस्तान की ऐसी-तैसी तो की ही, पाकिस्तान की भी काफी दुर्गति की। यही नहीं, उसने अमेरिका समेत यूरोप में भी निशाने साधे और हम तो खैर पड़ोस में ही हैं। हमारे यहां भी पाक प्रायोजित आतंकवाद और धार्मिक कठमुल्लापन बढ़ने लगा। जवाब में हिंदू कट्टरता भी बढ़ी। इसी कोढ़ में खाज की तरह कश्मीर में फौज के सहारे चुनाव लूटने का काम हुआ, जिसने पूरी घाटी में भारत विरोधी भावना भड़काई। पाकिस्तान को इससे अपने लिए एक अवसर मिल गया।
अफगानिस्तान से मोर्चा हटाने के बाद उसने कश्मीर में मोर्चा खोला और बांग्लादेश का बदला लेने का अभियान शुरू किया। कश्मीर में अत्याचार और मुसलमानों के दमन की झूठी खबरें फैलाकर पाक फौज और आईएसआई की देखरेख में दुनिया भर से आतंकी वहां भेजे गए। फिर दो-तीन निष्पक्ष चुनावों ने हवा बदली, सीमा पर सख्ती से घुसपैठ कुछ रुकी, लेकिन तब तक मुल्क की राजनीति नए दौर में आ गई। सीमा पर मुठभेड़ ही नहीं, कश्मीर घाटी के अंदर टकराव और मुल्क में कश्मीर के नाम पर राजनीति तेज हुई। इस बीच पाकिस्तान की नीति कब बदली और कब हमारे कश्मीरी नौजवानों का गुस्सा इतना बढ़ा कि वे फिदायीन हमले तक करने लगे, इसका ठीक हिसाब किसी के पास नहीं है। जब घाटी के पढ़े-लिखे लड़के ही पाकिस्तानी अजेंडे को आगे बढ़ा रहे हों तो बाहर से फिदायीन भेजने का क्या मतलब है!
पाकिस्तान अपने भारत विरोधी अभियान का एक चक्र पूरा कर चुका है। मरने-मारने वालों की संख्या का हिसाब भी मोदी सरकार को कश्मीर में किसी जीत का तमगा नहीं लेने देता। साफ लगता है कि हमने खुरच-खुरच कर घाव को नासूर बना दिया है। और यह तमाशा भी कोई कम महत्व का नहीं है कि मोदीजी और बीजेपी के लिए पुलवामा हमले और बालाकोट पर जवाबी कार्रवाई का चुनावी लाभ हर कोई देख रहा है, जबकि पाकिस्तान के पिछले चुनाव में हिंदुस्तान और उसमें भी कश्मीर कोई मुद्दा नहीं थे। सवाल है कि आप भले ही देश के संसदीय विपक्ष से बचते फिर रहे हों, लेकिन कार्रवाई के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति अगर आपकी कार्रवाई की भविष्यवाणी करने लगें और फ्रांस-इंग्लैंड जैसे मुल्क आपकी तरफ से पाकिस्तान पर दबाव डालने लगें तो फिर से कार्रवाई करना या युद्ध तक बात ले जाना क्या आपके लिए सहज रह पाएगा? और अगर आप अपनी फौज के प्रदर्शन और जवानों की शहादत के बाद पुलवामा के सहारे चुनावी बैतरणी पारना चाहते हैं तो अभी नतीजा निकालने की जल्दबाजी न करें। याद रहे, मुंबई पर आतंकी हमले के बाद जब दिल्ली में चुनाव हो रहे थे तो सबको शीला दीक्षित की पराजय दिख रही थी, लेकिन कांग्रेस ढंग से जीती।
(साई फीचर्स)