बार्बी डॉल के बारे में रोचक बातें आपको शायद ही पता हों

 

 

(माशा)

बार्बी साठ साल की हो गई है। एक गुड़िया, एक खिलौना, जो छह दशकों से दुनिया भर में बच्चों-बड़ों की चहेती रही है। उसकी तर्ज पर लोकल ब्रांड्स ने भले कितनी भी गुड़िया निकाली हों पर बार्बी तो बार्बी है। उसकी जीवन शैली, शारीरिक बनावट, फैशनेबल छवि सब परफेक्ट है। लड़कियां उसकी नकल करना चाहती हैं। बार्बी की कामयाबी का यही राज है।

मार्च 1959 में जब अमेरिकी कंपनी मेटल ने बार्बी को पेश किया था, तब भी खिलौना बाजार में गुड़ियों की कमी नहीं थी पर वे बेबी डॉल टाइप की होती थीं। बच्चियां उनसे मातृत्व और लालन-पालन के ही गुण सीखती थीं। उन सबसे अलग बार्बी एक फैशन मॉडल थी, जिसका अपना करियर था। यह बात और है कि उसका सब कुछ बहुत परफेक्ट था। परफेक्ट सेक्शुअलाइज्ड फिजीक, परफेक्ट ड्रेस-यहां तक कि परफेक्ट दिखने वाला पहला प्यार-केन। आदर्श स्त्रियों के लिए ऐसे ही पैमाने रचे जाते हैं। बार्बी के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में कई गुड़ियां आईं लेकिन अधिकतर बार्बी से प्रभावित रहीं।

लड़कों के लिए दूसरी तरह के खिलौने बाजार में उतारे जाते रहे। मस्कुलर और एक्शन से भरपूर। अमेरिका में दो पीएचडी स्टूडेंट्स ने बॉडी इमेज नाम की किताब में एक पेपर लिखा- थिन एंड सेक्सी वर्सेज मस्कुलर एंड डॉमिनेंट। उसमें 72 लोकप्रिय फीमेल गुड़ियों और 71 लोकप्रिय मेल एक्शन फिगर्स का अध्ययन किया गया। अध्ययन में शामिल 62ः गुड़ियां छरहरे शरीर वाली थीं, जबकि 42.3ः एक्शन हीरो बलिष्ठ देह वाले थे। छरहरी गुड़ियों को सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर पेश किया गया था- टाइट कपड़े, ऊंची एड़ी के जूते, तराशा हुआ शरीर और कामुक भाव-भंगिमाएं। बलिष्ठ शरीर वाले पुरुष एक्शन हीरो मुट्ठियां भींचे और गुस्से से तमतमाए चेहरे वाले थे।

बच्चे खेल-खेल में मौजूदा सामाजिक नियमों को दोहराते हैं और अक्सर तयशुदा लैंगिक भूमिकाओं को ही निभाते रहते हैं। कई जगहों पर तो खिलौने रंग और जातीय भेदभावों को भी पुष्ट करते चलते हैं। कैनेथ और मामी क्लार्क जैसे अफ्रीकी-अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने तो कई दशक पहले गुड़ियों पर प्रयोग करके, बच्चों के आचरण पर अध्ययन किया था। उनका कहना था कि ब्लैक लड़कियां अक्सर सफेद रंग की गुड़ियों से खेलना पसंद करती हैं और सफेद रंग की गुड़ियों को अधिक सुंदर माना जाता है। यह नस्लीय भावनाओं का ही प्रदर्शन है।

छरहरी गुड़ियों के दूसरे नुकसान भी हैं। उसकी देखादेखी बच्चों में ईटिंग डिसऑर्डर शुरू हो जाता है। साल 2013 में शंघाई विश्वविद्यालय में एक अध्ययन में कहा गया कि सौंदर्य की पश्चिमी अवधारणा के चलते तीसरी दुनिया के देशों के बच्चों ने अपने खान-पान में कटौती करनी शुरू कर दी है, ताकि अपनी पसंदीदा गुड़ियों की देह हासिल कर सकें। मस्कुलर फिगर्स के अपने असर हैं। उग्र चरित्र वाले प्रतिमान उत्तेजना और उससे उपजी हिंसा को जायज ठहराते हैं।

जेंडर से जुड़े स्टीरियोटाइप्स को बदलना मुश्किल नहीं है। इस साल जनवरी में केंट विश्वविद्यालय, इंग्लैंड की एक डिवेलपमेंट साइकॉलजिस्ट लॉरेन स्पिनर ने एक मजेदार शोध किया। उसमें चार साल के बच्चों और बच्चियों को हर तरह के खिलौने दिए गए और उन्होंने हर तरह के खिलौनों से खेला। लॉरेन का कहना था कि हर किस्म के खिलौने बच्चों को कुछ न कुछ सिखाते हैं। ब्लॉक्स और पजल्स से बच्चे आकार, क्षेत्र, दूरी आदि को नापना सीखते हैं और उन्हें चीजों को जोड़ना आता है। दूसरी तरफ गुड़िया या दूसरे फेमिनिन खिलौनों से बच्चा समाज में संवाद और व्यवहार करना सीखता है। भला, ये विपरीत गुण सभी लिंगों के बच्चों में क्यों नहीं होने चाहिए!

यह वह दौर है जब युवा दिखने की होड़ में लोग हजारों-लाखों रुपए बेहिचक खर्च कर देते हैं। साल 2025 तक एंटी एजिंग का बाजार 300 अरब डॉलर से अधिक होने की बात कही जा रही है। ऐसे में बार्बी साठ साल की होकर भी बीस की लगे तो इस पर मुस्कराने के अलावा क्या चारा रह जाता है।

(साई फीचर्स)

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