(शरद खरे)
कुटीर उद्योग का मतलब क्या है? कुटीर उद्योग वे उद्योग हैं, जिनका एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्णरूप से अथवा आंशिक रूप से संचालन किया जाता है। भारत के द्वितीय योजना आयोग द्वारा इसी परिभाषा को मान्यता प्रदान की गयी है। इसके अतिरिक्त प्रोफेसर काले ने कुटीर उद्योगों को परिभाषित करते हुए कहा है कि कुटीर उद्योग इस प्रकार के संगठन को कहते हैं जिसके अन्तर्गत स्वतंत्र उत्पादनकर्त्ता अपनी पूंजी लगाता है और अपने श्रम के कुल उत्पादन का स्वयं अधिकारी होता है।
कुटीर उद्योग सामूहिक रूप से उन उद्योगों को कहते हैं जिनमें उत्पाद एवं सेवाओं का सृजन अपने घर में ही किया जाता है, न कि किसी कारखाने में। कुटीर उद्योगों में कुशल कारीगरों द्वारा कम पूंजी एवं अधिक कुशलता से अपने हाथों के माध्यम से अपने घरों में वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।
भारत में प्राचीन काल से ही कुटीर उद्योगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अंग्रेजों के भारत आगमन के पश्चात देश में कुटीर उद्योगों तेजी से नष्ट हुए एवं परंपरागत कारीगरों ने अन्य व्यवसाय अपना लिया, किन्तु स्वदेशी आन्दोलन के प्रभाव से पुनः कुटीर उद्योगों को बल मिला और वर्तमान में तो कुटीर उद्योग आधुनिक तकनीकी के समानान्तर भूमिका निभाते रहे।
एक समय था जब घरों-घर कुटीर उद्योग दिखायी देते थे। कहीं दीये बनते थे तो कहीं मटके, तो कहीं दीये की बाती। कालांतर में जबसे चाईनीज मार्केट ने देश में पैर पसारे धीरे-धीरे कुटीर उद्योग मानो बंद ही होते गये। सिवनी में भी घरों में अब वे उद्योग दम तोड़ते दिख जाते हैं।
आज प्रौढ़ हो चुकी पीढ़ी को इस बात को भली भांति जानती होगी कि जब भी भैरोगंज से गुजरा जाता था तब भैरोगंज में हाथकरघा की खट-खट तो कहीं पीतल के बर्तन बनाये जाते समय ठोका-पीटी की आवाजें आया करती थीं। भैरोगंज से नब्बे के दशक तक उठने वाली आवाजें आज शांत हो गयी हैं।
गर्मी के मौसम में जिले में बनने वाली सुराही और मटकों की माँग इतनी जबर्दस्त हुआ करती थी कि लोग फरवरी माह से ही अपने अपने मटके या सुराही के लिये ऑर्डर बुक करा देते थे। आज हालात उलट ही दिख रहे हैं। वर्तमान में मटका, सुराही बेचने वाले लोग ग्राहकों के इंतजार में गर्मी ही निकाल देते हैं।
दीप पर्व आने वाला है। दीपावली पर मिट्टी के दीये स्थान-स्थान पर बिकते दिखते थे। इन दीयों के स्थान पर आकर्षक डिजाईन वाले चायनीज दीयों का बाज़ार कुछ सालों से दिखायी पड़ रहा है। ये दीये सस्ते तो होते हैं पर इनके उपयोग के बाद इन दीयों को अगर फेंक दिया जाता है तो इनके अवशेष सालों तक जस के तस ही पड़े रहते हैं।
इस तरह से अगर कुटीर उद्योग दम तोड़ रहे हैं तो इसके लिये कहीं न कहीं हुक्मरानों की अदूरंदेशी ही जिम्मेदार मानी जायेगी। सांसद-विधायकों के द्वारा सालों साल उपेक्षा का ही परिणाम है कि जिले में कुटीर उद्योग मानो दम तोड़ चुका है। एक घर में चलने वाले इस उद्योग से पूरा परिवार पलता था आज इस तरह के परिवारों के सामने आजीविका का संकट भी आन खड़ा हुआ है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि जिला स्तर पर भी इस तरह के अभियान चलाये जाने चाहिये जिससे दम तोड़ते कुटीर उद्योगों को संजीवनी मिल सके। इसके लिये सांसदों को लोकसभा में तो विधायकों को विधान सभा में सिवनी जिले के हित को वजनदारी से उठाकर कुटीर उद्योगों को जिंदा करने के मार्ग प्रशस्त करना चाहिये।