किराये पर कैसे वाहन!

 

 

(शरद खरे)

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में प्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों में सरकारी वाहनों की बजाय निजि तौर पर टैक्सी परमिट वाले वाहनों को किराये पर लगाने की नीति को लागू किया गया था। इससे सरकारी खजाने से फिजूलखर्ची काफी हद तक रूकने की उम्मीद जतायी जा रही थी।

अमूमन सरकारी वाहनों में डीज़ल पेट्रोल के अलावा मेंटेनेंस, चालक का वेतन आदि मदों में करोड़ों रुपये व्यय हो रहे थे। सरकारी वाहनों को हटाकर जबसे इनके स्थान पर टैक्सियों को लगाया गया है, उसके बाद से हर वाहन पर लगभग पच्चीस से चालीस हजार रूपये का खर्च आ रहा है।

सरकार ने यह भी नीति लागू की थी कि सरकारी तौर पर अनुबंधित किये जाने वाले वाहनों में दो साल से ज्यादा पुराने वाहनों को किराये पर न लिया जाये। इसके साथ ही साथ यह वाहनों का व्यवसायिक उपयोग है अतः इसके लिये वाहन का टैक्सी कोटे में पंजीकरण आवश्यक है।

प्रदेश सहित सिवनी जिले में चल रहे वाहनों पर अगर नजर डाली जाये तो सरकारी तौर पर किराये से लिये गये वाहनों में अधिकांश वाहनों की नंबर प्लेट पीले रंग की और उन पर अक्षर काले रंग से नहीं लिखे गये हैं। इनमें सफेद नंबर प्लेट पर काले अक्षरों से नंबर लिखे गये हैं जो कि गैर व्यवसायिक उपयोग के वाहनों के लिये है।

इसके साथ ही साथ वाहनों का अनुबंध सरकार या विभाग के साथ किया जाता है। इस लिहाज से इन वाहनों पर शासन द्वारा अनुबंधित लिखा होना चाहिये। इन नियमों को धता बताते हुए निजि वाहनों पर मध्य प्रदेश शासन लिख दिया जाता है वह भी रेडियम से। मजे की बात तो यह है कि अनुबंध समाप्त होने के बाद भी वाहनों पर मध्य प्रदेश शासन लिखा ही रह जाता है जिससे इसके दुरूपयोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।

वहीं, सरकारी तौर पर किराये से लिये गये वाहनों के मासिक भुगतान में पीयूएल (डीज़ल पेट्रोल) के अलावा जो भुगतान होता है उसमें वाहन चालक का वेतन भी शामिल होता है जो कि वाहन स्वामी को करना होता है। अनेक वाहनों को आज भी सरकारी चालकों से ही चलवाया जा रहा है। इस तरह हर माह वाहन मालिकों को सीधे-सीधे लाभ पहुँचाया जा रहा है।

इतना ही नहीं इन अनुबंधित वाहनों को अगर परिवहन विभाग में टैक्सी कोटे में पंजीकृत किया गया होगा तो इसमें एक वर्दीधारी और बिल्लाधारी चालक भी होगा। आज सरकारी वाहनों में वाहन चालक ही वर्दी को धारित नहीं करते हैं। इतना ही नहीं ये सीट बेल्ट भी नहीं बाँधते हैं। इस तरह परिवहन विभाग और यातायात पुलिस की चैकिंग की कवायद पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक ही है।

अनेक वाहनों में तो फायर एक्सटेंविशर तक नहीं हैं, किसी में फर्स्ट एड बॉक्स नहीं है। क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी द्वारा भी इस तरह के वाहनों की कभी चैकिंग न किया जाना भी आश्चर्यजनक ही माना जायेगा। इनका पूरा टैक्स अदा किया गया है या नहीं, यह भी संदिग्ध ही प्रतीत होता है। जिला प्रशासन अगर ध्यान देकर इस दिशा में कार्यवाही कराये तो . . .।